कालजयी साहित्यकार के रुप में विख्यात मुन्शी प्रेमचंद जी सदियो से पीढ़ी-दर-पीढ़ी साहित्यिक प्रेमियों के ह्रदय पटल पर अंकित है और उनका नाम आज भी स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
हिंदी के पहले उपन्यासकार और कहानीकार प्रेमचंद जिन्होंने पीढ़ियों और समय की सीमाओं को पार कर लिया और आज तक हिंदी साहित्य में निर्विवाद रूप से शीर्ष पर बने हुए हैं।
अगर ज़िंदगी के संघर्ष और मुसीबतों को कागज़ पर उकेरा जा सकता है, तो भारतीय साहित्यकारों में प्रेमचंद इसकी मिसाल हैं. गरीबों, पिछड़ों और दलितों के जीवन को बुलंद आवाज़ दे देश प्रेम जीवन संघर्षों को अपनी कलम के माध्यम से प्राथमिकता से जीवांत कर सामाजिक कुरीतियों, छुआछूत, सामंतवाद, प्रगतिशीलता, उपनिवेशवाद ब्राह्मणवाद और सामंती समाज का विरोध, जातिवादको खत्म कर देश प्रेम और लोक-संस्कृति तथा परंपराओं का आगाज़ करने आजादी का शंख नाद करने वाले पहले उपन्यासकार प्रेमचंद ही हैं. भारतीय समाजकी कुरीतियों को अपने उपन्यासों और कहानियों में इस तरह उकेरा कि दुनिया चकित रह गई.
हिंदी कहानी एवं उपन्यास के शिखर-पुरुष मुंशी प्रेमचंद भी इसी कारण विवादित विमर्श एवं विवेचना के शिकार हुए। उनकी जयंती पर यह कहना न्यायोचित होगा कि कथित बौद्धिकता एवं वर्गीय चेतना के नाम पर उनके सृजन एवं सरोकारों को लेकर चलने वाले खंड-खंड विरोध,चिंतन पर हम अविलंब विराम लगाएँ और उनके विपुल रचना-संसार को समग्रता में स्वीकार करें ।
कोई भी साहित्यकार देश-काल एवं परिस्थितियों की उपज होता है। वह अपने देखे-सुने-भोगे गए यथार्थ का कुशल चितेरा होता है। उसका उद्देश्य अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों का रंजन और उनकी चेतना का परिष्करण व उन्नयन होता है। प्रेमचंद भी इसके अपवाद नहीं रहे।
उनकी कहानियों को अनुसूचित जाति समाज या ब्राह्मण विरोधी बतलाना, उन्हें संप्रदाय-विशेष का विरोधी सिद्ध करना सरासर अन्याय है। चाहे उनकी कहानी ‘कफ़न’, ‘ठाकुर का कुँआ’, ‘पूस की रात’, ‘दूध का दाम’ ‘ईदगाह’ या ‘पंच परमेश्वर’ हो, चाहे उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘कायाकल्प’ और ‘गोदान’ आदि – सभी में उन्होंने समाज के वंचित-शोषित-पीड़ित जनों के प्रति गहरी सहानुभूति प्रकट की है और न्याय, समता एवं भ्रातृत्व पर आधारित समाज-व्यवस्था की पैरवी की है। उनका यथार्थोन्मुखी आदर्शवाद भारतीय चिंतन की सुदीर्घ परंपरा से कहानियों में प्रदर्शित है।
जीवन के संघर्षों-थपेड़ों से जूझता मन अंत में बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य और अशुभ पर शुभ की विजय देखकर स्वाभाविक प्रसन्नता की अनुभूति करता है और प्रेमचंद की अपार लोकप्रियता एवं स्वीकार्यता का यह एक प्रमुख आधार है। यथार्थ-चित्रण के नाम पर आदर्श एवं लोक-मर्यादा की नितांत उपेक्षा व अवमानना भारतीय परंपरा और कदाचित प्रेमचंद को भी स्वीकार नहीं। समाज को सही दिशा में आगे बढ़ाते हुए उन्होंने सामाजिक-साहित्यिक एवं सांस्कृतिक आदर्शों व परंपराओं को उजागर कर अपनी रचनाओं की विषयवस्तु बना प्रेषित किया।
प्रेमचंदजी अपनी साहित्यिक जिम्मेदारी और सामाजिक आवश्यकता को भली-भाँति समझते थे और उन्होंने अपनी कलम को सदैव सकारात्मक सोच भावनाओं और विचारों को रेखांकित करने हेतु प्रयुक्त किया।
उनके विरोध और लोगों के नाकारात्मक अनेक प्रयासों, आलोचनाओं या विमर्शों से प्रेमचंद की महत्ता कम नहीं हो जाती।
वे मानते थे” है अपना हिन्दुस्तान बसा है सदा हमारे गांवों में “
गाँव एवं कृषक संस्कृति के उद्गाता हैं। उनका साहित्य अपने युग एवं समाज का प्रतिबिंब है। उनकी रचनाओं में जन-जन की पीड़ा व संघर्ष को वाणी मिली है। वे स्वराज और स्वाधीनता के महागाथाकार हैं। कथाकार होते हुए भी उनमें महाकाव्यात्मक चेतना के दर्शन होते हैं। देश, समाज, संस्कृति के सरोकारों से लेकर व्यक्ति-व्यक्ति की पीड़ा व अंतर्द्वंद्व को उन्होंने मुखरित किया है। उनकी कथावस्तु, पात्र व संवाद हमें अपने जीवन से जुड़े जान पड़ते हैं। उनका राष्ट्र-भाव, संस्कृति-भाव, शोषण-दमन से मुक्ति-भाव, संप्रदायों में एकता-भाव, कृषि-संस्कृति, भारतीयता एवं लोकचेतना की रक्षा का भाव, उन्हें न केवल विशिष्ट बनाता है, अपितु कालजयी और जन-मन का सम्राट भी बनाता है।
सर्व साधारण के प्रति उनकी घनीभूत संवेदना और करुणा मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का एक सफल सद्प्रयास है। समालोचक डॉ रामविलास शर्माजी ने सही कहा था “प्रेमचंद वाल्मीकि, वेदव्यास, तुलसीदास की परंपरा में आते हैं, इसलिए उनका साहित्य भी इन महाकवियों के समान युगों-युगों तक सार्थक बना रहेगा और अपने समय के मनुष्य, समाज और देश की आत्मा का उन्नयन करता रहेगा, उसे अंधकार से प्रकाश की ओर लाता रहेगा और अपनी प्रासंगिकता को अखंड रूप में बनाए रखेगा, क्योंकि मानवीय उत्कर्ष के अतिरिक्त साहित्य की अन्य कोई सार्थकता नहीं हो सकती।
उनकी जिस यथार्थवादी रचना ‘कफ़न’ के पात्र ‘घीसू’ और ‘माधो’ की संवेदनहीनता और उसकी जाति के उल्लेख को आधार बनाकर जिन कथित दलित चिंतकों- विचारकों ने प्रेमचंद को दलित विरोधी करार दिया है।
मनुष्य की संवेदना का विस्तार तो मूक-निरीह पशु-पक्षियों से लेकर संपूर्ण चराचर जगत तक होता है। फिर भला यह कैसे संभव है कि हाड़-मांस से बने अपने ही तरह के जातितर मनुष्यों की पीड़ा के प्रति वह संवेदनहीन बना रहे?
देशकाल-परिस्थिति-पात्रगत प्रवृत्तियों एवं चित्रण को आधार बनाकर उन्हें इस या उस खेमे में बाँटकर देखना उनके साहित्यिक अवदान को कम करके आँकना है।
कतिपय एसेअनेक प्रयासों, आलोचनाओं या विमर्शों से प्रेमचंद की महत्ता या प्रासंगिकता कम नहीं हो जाती। वे गाँव एवं कृषक संस्कृति के उद्गाता हैं। उनका साहित्य अपने युग एवं समाज का प्रतिबिंब है। उनकी रचनाओं में जन-जन की पीड़ा व संघर्ष को वाणी मिली है। वे स्वराज और स्वाधीनता से साक्षात्कार कराने वाले कथाकार तो है ही उनकी कृतियों में महाकाव्यात्मक चेतना के दर्शन होते हैं। देश, समाज, संस्कृति से लेकर व्यक्ति-व्यक्ति की पीड़ा व अंतर्द्वंद्व को उन्होंने मुखरित किया है। सर्व साधारण के प्रति उनकी घनीभूत संवेदना और करुणा मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का एक सफल सद्प्रयास है।साहित्यकार के विचार हर पीढ़ी के लिए दीप शिखा की ज्योति तीन तरह मार्गदर्शन करता रहेगा, उसे अंधकार से प्रकाश की ओर लाता रहेगा और अपनी प्रासंगिकता को अखंड रूप में बनाए रखेगा, क्योंकि मानवीय उत्कर्ष के अतिरिक्त साहित्य की अन्य कोई सार्थकता नहीं हो सकते है।
उनकी जन्म जयंती पर ऐसे महान साहित्यकार को शत् शत् नमन प्रणाम।
ममता सक्सेना,
इन्दौर, मध्यप्रदेश
परिचय-
ममता सक्सेना (एम. एस .सी. वनस्पति शास्त्र एम. एड.)
सेवा निवृत्त प्राचार्या पर्यावरणविद् होने के साथ संगीत, सामाजिक गतिविधियों, पठन-पाठन ,साहित्यिक लेखन और मेल-मिलाप में रूचि ……