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सहमीं छितराती बदली
देवदार की ऊंगली पकड़
पहाड़ के सीने पर
सिर झुकाए खड़ी है।
प्रवासी प्रेमी का रूदन
रिमझिम बरसकर
कंदराओं से झर
जड़ों में जम रहा।
पल्लव से चिपकी बूंदें
हवा से बतियाते हुए
धीरे धीरे फिसल
नदी में विलीन।
उन्मादी मन पंछी
चोंच में सपने दबाए
टहनियां अदल बदल
घरौंदे बुन रहा।
दावानल में धधक रहा
जंगल का उदास चेहरा
विरहिन बदलियां
आंसूओं में डूब रही।
चंचल चपल बूंदें
दौड़ी नदी की डगर
अस्तित्व जंग जीतकर
समाधि लेने को विकल।
रमेश चंद्र शर्मा
इंदौर
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