शब्दांजलि
● डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
शुक्रवार शाम यानी 28 जून 2024 को व्यास सम्मान प्राप्त प्रो. शरद पगारे ने अंतिम सांस लेकर नश्वर देह को त्याग दिया।
गुलारा बेगम, पाटलीपुत्र की साम्राज्ञी जैसे कई उपन्यास से साहित्य और हिन्दी को बलवान बनाने वाले पगारे जी की वह खनकती आवाज़ अब नहीं सुनाई देगी। परिवार में धर्मपत्नी, दो बेटे व एक पुत्री है। उनके सुपुत्र सुशीम पगारे सुप्रसिद्ध क्रिकेट उद्घोषक (कॉमेंटेटर) हैं।
ऐतिहासिक उपन्यासों के अप्रतिम कुम्भकार को मातृभाषा उन्नयन संस्थान की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
शहर के सुधिजनों ने अपनी शब्दांजलि व्यक्त की।
साहित्य और इतिहास के विलक्षण शिल्पी- डॉ. शरद पगारे
किसी रचनाकार का व्यक्तित्व और उसकी रचनाएँ ही उसका परिचय होती हैं। किसी साहित्यकार का जन्म, बाल्यकाल, युवावस्था और लम्बे जीवन की सामान्य घटनाएँ, शिक्षा, परिवार,आदि साहित्य में उतना महत्त्व नहीं रखते जितना महत्त्वपूर्ण होता है उसका रचना कर्म, उसका चिन्तक स्वरूप और वह रास्ता जिस पर चलकर वह आने वाली सदियों के लिए कुछ ऐसे सूत्र छोड़ जाता है, जिनके सिरे थाम कर साधारण व्यक्ति भी अपने मौन को मुखरित कर पाता है। कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व था डॉ. शरद पगारे जी का, जिनका बेहद आत्मीय व्यवहार मित्रों को जोड़ता रहा और उनसे स्नेह व श्रद्धा महसूस करता रहा। जब मिले गर्म जोशी से हाथ पकड़ कर और कहते, ‘घर आओ।’ इतनी आत्मीयता कि मिलने वाला संकोच से भर कर घर न जा पाने के अपराध से सिर झुका ले।
साहित्य के अनेक बड़े सम्मानों से विभूषित पगारेजी को जब “पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी” पर प्रतिष्ठित “व्यास सम्मान” मिला तब शायद शहर के साहित्य जगत के वे सर्वाधिक जगमगाते सितारे के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उस समय उनकी प्रतिक्रिया यही थी कि ‘यह शहर तब सम्मान योग्य मानता है जब सारा विश्व सम्मान कर लेता है।’ “गुलारा बेगम” के नए संस्करण आने की ख़ुशी अक्सर साझा करते थे। नाटक रूप में अपनी कृतियों के सम्बंध में चर्चा करते एक आलौकिक तेज उनके चेहरे पर मैंने देखा।
दरअसल, हमारे आसपास इतना कुछ घटित हो रहा है कि जब तक हम समझ पाएँ, वक्त हाथों से झपट्टा मार कर कुछ न कुछ लेकर अदृश्य हो जाता है। हम जब तक कुछ तय कर पाएँ, अर्थ ही बदल जाते हैं। ऐसा ही हुआ। हम सोचते रहते हैं कि उम्र गुज़र रही है, जिन विशेष साहित्यकार, कलाकार, समाज सेवी व इष्ट मित्रों की, उनसे सम्पर्क कर कुछ यादगार करेंगे; मगर समय अवसर कहाँ देता है! वो बुलाते रहे और हम जा नहीं पाए, उसके पूर्व ही वे अनन्त यात्रा पर चल पड़े। सर्जना के प्राणवंत पदयात्री डॉ. शरद पगारे, भौतिक रूप से भले ही अलविदा कह कर चले गए। वे हमारे मन मष्तिष्क से कभी दूर नहीं होंगे।
साहित्य वाचस्पति, बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान, विश्वनाथ सिंह सम्मान, वागीश्वरी सम्मान, अम्बिका प्रसाद दिव्य सम्मान, सारस्वत सम्मान, साहित्य शिरोमणी सम्मान व व्यास सम्मान से सम्मानित आदरणीय पगारे जी का लेखन इन सब सम्मानों से इतर है। वे सम्मानों के लिए नहीं लिखते थे। उनका लेखन मनोभावों को कल्पना और यथार्थ के ताने-बानों में गूंथा गया ऐसा दस्तावेज़ है जो आने वाले समय में स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जाएगा। इतिहास के प्राध्यापक होकर पूर्णतः साहित्य जीते थे। जब उनके पात्रों पर बात की जाती तब वे विस्तार से आसपास का वातावरण परिवेश और पात्र को जीवंत कर देते थे। अनेक विश्वविद्यालयों में उनके कथा साहित्य पर पीएच. डी. हो चुकी व अभी भी निरंतरता बनी है।
गुलारा बेगग, बेगम ज़ैनाबादी वासवदत्ता, साध्वी सरस्वती मृणालवती, रूपमती जैसी नायिकाओं की प्रणयगाथाओं को इतिहास और कल्पना के इंद्रधनुषी रंगों में सजा कर आपने जो भव्यता प्रदान की है, वह ऐतिहासिक उपन्यासकारों की शीर्ष पंक्ति में आपको खड़ा करती है। आपने अपनी विलक्षण प्रतिभा का डंका अमेरिका, बैंकॉक और थाइलैण्ड के विश्व विद्यालयों में भी बजवाया है। नारी मनोविज्ञान ज्ञान और राजनीति के गलियारों में पनपते षड्यंत्रों का चित्रण करने में वे सिद्धहस्त रहे।
श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति से जुड़े होने के कारण कुछ वर्षों तक नियमित रूप से उनसे भेंट होती रहती थी। बाद के समय में उनका आना कुछ विशेष अवसरों पर आने तक ही सीमित होता गया। लम्बे अन्तराल के बाद आने और मिलने पर वही जोश, वही प्रफुल्लता और बच्चों जैसी सरल व भोली मुस्कान शायद सभी की यही राय होगी। व्यक्ति चला जाता है पर उसका आभास दीप्ति बन कर हमारे आसपास मौजूद रहता है। हमारा सौभाग्य है कि ऐसी रचनात्मक ऊर्जा और बेमिसाल प्रतिभा के धनी, प्रेरणा देने वाले व्यक्तित्व के धनी पगारे जी से हमें सदैव पितृवत स्नेह मिला व मेरी रचनात्मकता को भी वे सदैव ख़ास रूप से उल्लेखित करते थे जो मेरे लिए सदैव प्रोत्साहित करती थी।
आखिरी बार भी वे समिति सभागार में ही मिले। एक साहित्यिक आयोजन में सम्मानित अतिथि थे, साथ में, डॉ. सुशीम पगारे भी थे। तब भी घर आने का आत्मीय निमंत्रण, फिर जन्मदिन पर शुभकामनाओं के लिए फ़ोन पर चर्चा हुई। प्रणय और संवेगों के पारखी, सौंदर्य के चित्तेरे डॉ. पगारे जी ने इतिहास के माध्यम से जिन मानवतावादी मूल्यों की प्रतिष्ठा की है, वह साहित्य शोधकों को युगों तक राह दिखाते रहेंगे। साहित्य में निमग्न रहने वाला, साहित्य को आत्मसात करने वाला, सरल व्यक्तित्व, रचनाकर्म को ही पूजा समझने वाला विरला व्यक्तित्व था डॉ. शरद पगारे जी का। नवीन जी के शब्दों को स्मरण करते हुए अंत में उनके प्रति अश्रुपूरित श्रद्धांजलि देती हूँ-
‘हम अनल मंत्र के छन्दकार
इस दुर्दम तम को क्यों न दलें
हम सूर्यकार हम चंद्रकार
हम अलख निरंजन के वंशज
निज मनोरथों के हम हन्ता
अपना सब कुछ देने में ही
है सार्थकता इन प्राणों की…’
#डॉ. पद्मा सिंह
साहित्य मंत्री, श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, इन्दौर
उपन्यासों में ऐतिहासिक पात्रों के कुम्भकार रहें डॉ. पगारे
लगभग 40-50 वर्षों के संबंधों में हमेशा उत्सवों से रंगे रहने वाले अक्षरों के कुशल चितेरे प्रो. शरद पगारे का अवसान व्यक्तिशः के अलावा सार्वजनिक क्षति है। मस्तमौला मिज़ाज वाले पगारे जी इतिहास पढ़ाते-पढ़ाते कब इतिहास के पात्रों का परिचय बन गए यह हमारी पूँजी है।
उपन्यासों का आयतन इतना कि आराम से पाठक डुबकी लगाएँ और उनके पत्रों से जीवंत परिचित स्थापित कर सकें। साहित्य की सैंकड़ो गोष्ठियों, सभाओं में उनका खुशमिज़ाज रहना सभी को आकर्षित करता रहा। ऐसे कालजयी सृजक का अनायास चला जाना पीड़ादायक है।
#राजकुमार कुम्भज
(अज्ञेय के चौथा सप्तक के कवि)
प्रो. पगारे सर का महाप्रयाण खल गया
महाप्रयाण जब सुनिश्चित है तो उसको लेकर क्यों दु:खी होते हैं?इसलिए कि इस सुनिश्चित का घटना अनिश्चित होता है और कल जब सर के महाप्रयाण का समाचार मिला तो इस अनिश्चित के अकस्मात घट जाने ने मन को विकल कर दिया। इसलिए भी कि इतनी दूर हूँ दिल्ली में कि उनके अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाया।इस समाचार ने पीड़ा के घनों को कहीं और घना कर दिया।
कुछ दिनों पहले ही स्नेह नगर में घर पर मिलने गया था। कोई साहित्य की बात नहीं हुई। खंडवा की स्मृतियों से भी और बहुत दूर उस दिन वे मेरे शहर हरदा पहुँच गए थे, जहाँ उनकी ननिहाल थी, जहाँ उनका बचपन बीता और फिर यादों के गलियारों में टहलते उन्हें बुरहानपुर और उसके पास के ज़ैनाबाद और फिर गुलारा की बारादरियाँ याद आईं, झरने याद आए और याद आईं कुछ कलियाँ, कुछ फूल, कुछ सुगंध, कुछ रंग और अधीर उमंग। कहने लगे संबंध पहले है, साहित्य तो उसकी बुनियाद पर खड़ा होता है। वह दिन साहित्य को नहीं संबंध को समर्पित दिन था।
उस दिन उन्हें फ़्रांस के वार्साय की भी बहुत याद आई, वहाँ के उन महलों की, जो कला के शोकगीत हैं। वे फ़्रांस की क्रांति और मेरी एंटीयोनेट की चर्चा करते रहे और मैंने जब उन्हें पेरिस में रखी उस पेंटिंग के बारे में बताया कि जब उसे उस समय के राजकीय वाहन में जेल से फांसी पर चढ़ने, जिसे गिलोटीन करना कहते थे, ले जाया जा रहा था तो वह उस रथ पर राजकीय ऐंठ के साथ ऐसे सवार हो रही थी जैसे वह कोई क़ैदी न हो बल्कि अपने लाव लश्कर के साथ सैर करने जा रही हो, तो उसका विवरण सुनकर वे विहल हो उठे थे।
वें इतिहास के प्राध्यापक रहे लेकिन उन्होंने इतिहास पढ़ाया ही नहीं बल्कि जिया और इस तरह जिया कि उनके उपन्यासों के पात्र जीवंत हो गए और बीते कल, आज हो गए, अभी हो गए।
यह सृष्टि का विचित्र विधान है कि स्मृतियाँ चिर बिछोह के समय और अधिक प्रखर होने लगती हैं।मुझे साठ का वह दशक याद आया जब नई दुनिया में ऐतिहासिक विषयों पर रविवारीय में बहुत लिखा जाता था और लिखते थे डॉक्टर शरद पगारे, डॉक्टर सोलोमन, शिवनारायण जी यादव और बालकृष्ण पंजाबी। तभी से इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मैंने भी नई दुनिया में लिखना आरंभ किया, ललित निबंध की शैली में। मुझे याद है तब पूरे मन से वे हरेक आलेख की प्रशंसा करते थे। उस समय मैं भोपाल में पढ़ता था लेकिन जब भी इंदौर आता और वे यहाँ होते तो मैं ज़रूर उनसे मिलता।
मेरा लंबा कालखंड बुरहानपुर और खंडवा में बीता जहाँ की पृष्ठभूमि में उनके उपन्यास हैं। मेरा सौभाग्य रहा कि जब ये उपन्यास लिखे जा रहे थे तब इनके महत्त्वपूर्ण अंश उन्हीं से सुनने के अवसर मुझे मिले।
दो माह ही हुए होंगे और तब भी मैं दिल्ली में ही था, मैंने उनसे स्नेहनगर में ही उस आत्मीय भेंट के समय कहा था कि मैं आपके समग्र कृतित्व पर जल्दी ही लिखूँगा। मैंने लिख भी लिया लेकिन अब एक नई समस्या है कि मैं, है की जगह थे कैसे लिखूँ?जिसने बीते कल को अभी-अभी में बदल कर आँखों के सामने प्रत्यक्ष कर दिया हो, उसे कैसे कहूँ कि वह बीत कर अब अतीत हो गया है।
उनकी स्मृतियों की जीवन्त देह को प्रणाम।
#नर्मदा प्रसाद उपाध्याय
वरिष्ठ साहित्यकार, इन्दौर
अब अक्षरदेह के रूप में साथ रहेंगे प्रो. शरद पगारे
● डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
किसी विचार की यात्रा अनंत की होती है, इस समय धरा पर एक ओर ताप बढ़ा हुआ था, कुछ बौछार मिट्टी के सूखेपन को कम कर रही थीं, इसी बीच गुलारा बेगम जैसे किरदार को जनमानस के बीच में पहुँचाने वाले कुशल कुम्भकार की महायात्रा की ख़बर ने झकझोर दिया। मालवा-निमाड़ ही नहीं अपितु देशभर में ऐतिहासिक किरदारों को करीने से गढ़ने में उस्ताद प्रो. शरद पगारे का दैहिक रूप से चला जाना साहित्य जगत् ही नहीं वरन् जनमानस को भी आहत कर गया। व्यास सम्मान प्राप्त सुप्रसिद्ध उपन्यासकार, वरिष्ठ साहित्यकार आदरेय प्रो. शरद पगारे जी ने शुक्रवार शाम को अंतिम साँस ली। 5 जुलाई 1931 को मध्य प्रदेश के खंडवा में जन्मे पगारे जी दीर्घकाल तक इतिहास के प्राध्यापक रहे। आपको वर्ष 2020 का प्रतिष्ठित व्यास सम्मान भी आपको प्राप्त हुआ।
आपने उपन्यास विधा में गुलारा बेगम, गंधर्व सेन, बेगम ज़ैनाबादी, उजाले की तलाश, पाटलिपुत्र की साम्राज्ञी का सृजन किया। कहानी विधा में एक मुट्ठी ममता, संध्या तारा, नारी के रूप, दूसरा देवदास, भारतीय इतिहास की प्रेम कहानियाँ, मेरी श्रेष्ठ कहानियाँ जैसी किताबें लिखीं।
आपका लिखा नाटक बेगम ज़ैनाबादी की नाट्य प्रस्तुति श्री राम कला केन्द्र द्वारा क्षितिज नाम से की गई। आपकी अनेक रचनाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद भी हुआ।
माँ बोली यानी मातृभाषा निमाड़ी के प्रबल पक्षधर रहे। गुलारा बेगम जैसे कई उपन्यास से साहित्य और हिन्दी को बलवान बनाने वाले पगारे जी की वह खनकती आवाज़ अब नहीं सुनाई देगी।
ऐतिहासिक उपन्यासों के अप्रतिम कुम्भकार को मातृभाषा उन्नयन संस्थान की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।
हिन्दी साहित्य के ध्रुव तारे का 93वें वर्ष की आयु में अस्त होना समग्र साहित्य जगत् की अपूरणीय क्षति है।
(लेखक मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
प्रो. पगारे सर को विनम्र श्रद्धा सुमन
हमने अपने समय के चिरयुवा व्याससम्मान से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार शरद पगारे जी को खो दिया है। पगारे जी का जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है। अभी तो उनसे कितना कुछ सीखना था…जब भी उनसे मिलने घर जाओ, वे अपने लेखन कार्य में व्यस्त रहते थे, किस्सागोईयों का अद्भुत पिटारा खोल देते थे। अभी तो उनकी कलम को और कागज उकेरने थे…. हमारी सूनी आंखों के साथ खाली पन्ने भी अब हमेशा के लिए उनकी बाट जोहेंगे । उनका यह चित्र, चलचित्र बन जीवन भर साथ रहेगा। जीवन ऊर्जा थे वे।
#श्रुति अग्रवाल, वरिष्ठ पत्रकार, इन्दौर