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अकेले चलो या भीड़ में
मंजिल पर कदम
खुद ही रखना है।
रो कर गुज़ारो
तो भी गुज़रेगी जिंदगी,
ज़रुरी मगर हँसना है।।
हर कोई समेटे बैठा है
दर्द का सैलाब
भीतर ही भीतर तक।
अपनी कहो या
औरों की सुन लो
सत्य पर ही अडिग सदा रहना है।।
भरे हुए गिलास में
और पानी नहीं टिक पाता कभी।
सीखना और सिखाना है यदि
तो नदिया औ’ झरना बनना है।।
‘मैं’ हो गई प्रमुख जहाँ
वहाँ सब गौण हो गया।
तज कर अहम् भावना को
आसमां में उड़ान भरना है।।
चुभती नहीं है बातें अब
बदला भी लगता है ज़माना
“पूर्णिमा” में बदलती नज़र नज़रिया
औरों का आज यह कहना है।।
#डॉ.पूर्णिमा राय, पंजाब