पुस्तक समीक्षा- सवा सेर गेहूं

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पुस्तक का नाम- सवा सेर गेहूं

लेखक- मुंशी प्रेमचंद

पुस्तक का मूल्य- एक सौ पच्चीस रुपये ₹125/–

प्रकाशक- अनन्य प्रकाशन, दिल्ली

भारत के सभी प्रमुख बुक स्टॉलों पर उपलब्ध

ओपन बुक स्टोर समदड़िया मॉल
जबलपुर (म.प्र.)

विधा- गद्य कहानी

सवा सेर गेंहू व अन्य कहानियाँ

मुंशी प्रेमचंद की लेखनी सदा से ही मेरी आदर्श रही है। उनकी प्रत्येक किताब अपने आप में एक बेशकीमती रत्न है, जो हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बीच अपनी एक अलग ही पहचान रखती है। हर किताब आम जनमानस से जुड़ी हुई प्रतीत होती है, जो सीधे व्यक्ति के मन-मस्तिष्क तक पहुंचती है और इसी क्रम में उनकी किताब है। सवा सेर गेहूं व अन्य कहानियाँ।जो बारह हिंदी कहानियों का एक साझा संकलन है। इस किताब में है ‘सवा सेर गेहूं’, प्रेरणा, सद्गति, तगादा, ढपोरशंख, दरोगा जी, आगा-पीछा, प्रेम का उदय, सती, मृतक भोज, समस्या एवं दो सखियाँ कहानियाँ। इसमें से ‘सवा सेर गेहूं’ कहानी ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। अंदर तक झिंझोड़ कर रख दिया। वैसे मुंशी प्रेमचंद की कोई भी किताब के बारे में लिखना सरल नहीं है, किंतु मेरे लिए गर्व की बात है कि मैं आज लिखने की एक छोटी–सी कोशिश कर रही हूं।
यह कहानी एक सत्य घटना पर आधारित है। इसमें उन्होंने ऐसे महात्मा के बारे में बताया, जो खानदानी रईसों के महलों में पूजा-पाठ उनकी हवादार गाड़ियों में देवस्थान भ्रमण और छप्पन भोग का स्वाद ग्रहण करते हैं और वे यदि किसी गरीब की कुटिया पर पहुंच जाएँ तो उस गरीब का क्या हश्र होता है!
शंकर एक सीधा-साधा गरीब, दुनिया के छल–प्रपंच से दूर, इतना संतोषी कभी-कभी तो पानी पीकर और राम का नाम लेकर सो जाता और एक शाम ऐसे ही महात्मा उसके द्वार पर पधारे। घर में केवल जो का आटा, जो उन्हें कैसे खिलाता! सो थोड़ा–सा आटा उधार लेने की आस में गांव में निकल पड़ा। आटा तो नहीं मिला किंतु राह में विप्र जी मिल गए, जिनको साल में दो बार खलिहानी दिया करता था। सो उन्हीं से सवा सेर गेहूं उधार ले लिया। घर आकर स्त्री से आटा पिसवाकर महात्मा जी को भोजन कराया। महात्मा जी भी रात्रि विश्राम कर सुबह चले गये और फिर उस सवा सेर गेहूं के बदले शंकर का क्या हश्र हुआ!
और कहानी शुरू होती है, महात्मा जी के जाने के बाद।शंकर ने सोचा सवा सेर गेहूं विप्र जी को क्या दूं? खलिहानी देते समय पंसेरी बदले से ऊपर कुछ दे दूंगा और उस पंसेरी के डेढ़ पसेरी गेहूं विप्र जी को दे भी दिए और अपने आप को ऋण से मुक्त समझ कर शंकर ने कोई चर्चा न की और न ही विप्र जी ने भी मांगा, किंतु शंकर को क्या पता था कि उसे उस गेंहू को चुकाने के लिए दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।
सात साल बाद अचानक विप्र जी ने शंकर को राह में रोककर कहा, तेरे साढ़े पांच मन गेहूं उधार हैं, उन्होंने किस प्रकार भोले-भाले शंकर को कर्मकांड संबंधी बातों में उलझा कर डरा दिया कि तुम्हें नरक में जाना पड़ेगा। और उस गेहूं के ₹60 दाम लगाकर, उसके दस्तावेज़ बनाए गए। तीन रुपए सैकड़े सूद भी लिखा गया। शंकर ने साल भर एक समय भोजन किया रात को रोटियाँ केवल पुत्र के लिए ही बचाई जातीं। पूरे एक साल में ₹60 भी जमा हो गए, किन्तु ₹15 ब्याज।
शंकर ने सोचा इतना तो विप्र जी माफ़ कर देंगे, किंतु विप्र जी कहाँ मानने वाले थे और अब शंकर का सारा संयम निराशा में बदल गया।
मुंशी प्रेमचंद जी ने कितना सटीक लिखा है कि आशा ही उत्साह की जननी है, आशा में तेज है, बल है, जीवन है। शंकर को तो अब मेहनत से ही चिढ़ हो गई। आखिर कपड़ों में भी चकत्तियों के लगने की भी सीमा होती है। वह नशे की ओर उन्मुख हो गया। विप्र जी भी आज के साहूकार जैसे चतुर शिकारी। तीन साल तक कोई तकाज़ा नहीं किया और एक दिन अचानक शंकर को बुलाया ₹60 गेंहू वाले दस्तावेज़ दिखाये, जो उसके कटने के बाद भी अब बढ़कर ₹120 के हो गये और आज फिर शंकर जीवन भर का गुलाम बन गया। उसने जीवन भर्ती गुलामी स्वीकार कर ली। विप्र जी ने कहा कि आज से तू और तेरे बाद तेरा बेटा। बीस वर्षों की गुलामी के बाद शंकर ने संसार से विदा ली, किंतु ₹120 तो अभी भी उसके सिर पर सवार थे और आज अब विप्र जी ने उसके बेटे की गर्दन पकड़ ली।
वास्तव में वर्तमान समय में ऐसी कई घटनायें अपने समाज में ही, अपने आसपास देखने को मिल जायेंगी। ऐसा लगता है यह कहानी मुंशी प्रेमचंद जी ने आज ही लिखी हो। इससे यही शिक्षा मिलती है कि हमें भी ऊपरी दिखावा छोड़कर जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारना चाहिए।अंधविश्वास से भी दूर रहना चाहिए। अन्य सभी कहानियाँ आम जनमानस से जुड़ी हुईं, सरलता एवं सहजता के साथ सभी के हृदय पटल को स्पर्श करने वाली हैं। दैनिक मूल्यों को समझाती हुईं अनेक प्रकार की शिक्षा एवं सीख प्रदान करतीं मार्मिक कहानियाँ हैं।
आज मैं अपनी लेखनी द्वारा मुंशी प्रेमचंद जी को शत्–शत् नमन करती हूं।

साधना छिरोल्या

दमोह(म.प्र.)

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