कुल जमा सत्रह शीर्षकों में विभाजित व वर्णित ,पत्रकारिता विषय के प्रेमियों के लिये हाल ही में एक नई पुस्तक प्रकाशित हुई है -“पत्रकारिता और अपेक्षाएं” ।डाॅक्टर अर्पण जैन ‘अविचल’ द्वारा लिखित यह किताब वर्तमान समय की पत्रकारिता का निष्पक्ष अक्स खींचती है । पुस्तक की भूमिका ही इसकी विवेचना को स्पष्ट कर देती है । भूमिका कहती है कि आजकल के अखबार ,उत्पाद यानि प्रोडक्ट हो चुके हैं । हिंदी पत्रकारिता अंग्रेज़ीमय हो रही है । विश्व के दूसरे क्रम के सबसे बड़े बाज़ार भारत देश में हिंदी पत्रकारिता अपने ज़मीर व ज़मीन दोनों को खोते जा रही है। हिंदी पत्रकारिता भारत की आज़ादी का क्रांति सूत्र रही है परंतु आज हम हमारी इस विरासत से दूर हो गये हैं, ज़रूरत पत्रकारिता के सौष्ठव को पुनः बलिष्ठ करने की है। इक्कीसवीं सदी के आगाज़ के साथ सूचना क्रांति का विस्फोट हुआ है ।मानवीय मूल्यों का ह्वास हुआ है ।सोशल मीडिया व टीवी समाचारों से लेकर समाचार पत्रों तक अनावश्यक रूप से अंग्रेज़ी शब्द जोड़े जा रहे हैं । शुद्ध व निर्दोष हिंदी उपेक्षित हो रही है । वेब पत्रकारिता के चलन ने खबरों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया है । पत्रकारिता की प्रामाणिकता खतरे में है । इंटरनेट युग की पत्रकारिता के लिये फे़क न्यूज़ बड़ा खतरा है । आज पत्रकार व पत्रकारिता के लिये आचार संहिता आवश्यक है । एक अच्छे पत्रकार को सत्ता व नौकरशाही से भय नहीं होना चाहिये , भय होना चाहिये बुराई से । पत्रकारिता का मकसद जनता में जागरूकता को प्रज्ज्वलित करना तथा सियासत को भटकाव से बचाना है इसलिये पत्रकारिता को जनतंत्र में मानद विपक्ष की भूमिका निर्वहित करना चाहिये । तंत्र ,जो पूंजीपतियों की रखैल बन चुका है, को रिहा करवाना व उसे जन मन के सिंहासन पर आरूढ़ करना आज की पत्रकारिता की महनीय ज़िम्मेदारी है । मीडिया को खुद ही खुद के लिये लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी । खुद ही खुद की जवाबदारी तय करनी होगी । आज के व्यावसायिक आपाधापी के मंज़र के बीच भी कुछ अखबार, चैनल्स व सोशल साइट्स नैतिकता निभाते दिख जाते हैं , बस यही नैतिकता मीडिया के उज्ज्वल व जन हितैषी स्वरूप के प्रति हम सबको आशान्वित करती है । पुस्तक के लेखक डाॅ अविचल मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं अतः हिंदी के प्रति उनका आग्रह प्रेम से परिपूर्ण है । अड़तालीस पृष्ठ की यह क़िताब संस्मय प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित की है । और मूल्य भी महज सत्तर रुपए। विश्वविद्यालयों के पत्रकारिता व जन संचार जैसे समस्त विभागों ने इस कृति को संदर्भ ग्रंथ के रूप में स्वीकार करना चाहिये ।
–समीक्षक , प्रोफेसर राजीव शर्मा, अंतरराष्ट्रीय कवि,इंदौर