कला जो कानून हो गया।
मानवता का ख़ून हो गया।
वहशी खेल दरिंदों का वो।
सपना चकनाचूर हो गया।
बिछड़ गए अपनों से अपने।
धूल हुए आँखें के सपने।
फिर भी अड़े रहे परवाने।
आग भरी राखों के तप ने।
मिट्टी का रंग लाल मिलेगा।
गोरों का जंजाल मिलेगा।
जीवन और मरण का दर्शी।
रस्ता वो बदहाल मिलेगा।
उद्धम सिंह ने ठान लिया था।
कूटनीति को जान लिया था।
कसम मातृभूमि की लेकर।
लंदन को प्रस्थान किया था।
कसम एक–एक कतरे की।
भनक नहीं होगी खतरे की।
सीधा सीने पर वार है अब।
कब तक खैर मने बकरे की।
दिन को रात, रात को दिन कर।
एक-एक मिनट को गिनकर।
आराम तभी था पाया उसने।
डायर का सीना छलनी कर।
अंजामो से न घबराए।
दुश्मन भी जिनसे भय खाए।
हम सब की आज़ादी को जो।
हँसकर फांसी को अपनाए।
#चंद्रमणि मणिका,
दिल्ली, भारत