लघुकथा – बख़्शीश

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एक तो उसने ऑटो रिक्शा वालों की आम प्रवृत्ति के विपरीत वाज़िब पैसे ही मांगे थे, दूसरे सवारी के बैठने वाले पिछले भाग में दोनों ओर पारदर्शी प्लास्टिक के परदे लगाए हुए थे, जो ऊपर और नीचे दोनों ओर से ऑटो के साथ अच्छी तरह बाँधे हुए थे। इस कारण रास्ते की धूल और हवा दोनों से ही बचाव हो गया था। दिन भर की थकान जैसे घर पहुँचने से पहले ही उतरनी आरम्भ हो गयी थी। अचानक मैंने ख़ुद को गुनगुनाते पाया, लेकिन फिर तुरंत ही सम्भल गयी। आराम और तसल्ली के इस मूड में एक विचार मन में कौंधा कि घर पहुँच कर इसे किराये से दस रूपये अतिरिक्त दूँगी, आखिर इसने परदे लगाने पर जो पैसा खर्च किया है उसका फ़ायदा तो इसमें बैठने वाले यात्रियों को ही हो रहा है । यह विचार आते ही मुझे अपनी उदारता पर थोड़ा गर्व हो आया। मैंने मन ही मन इस किस्से के कुछ ड्राफ्ट बनाने शुरू कर दिए कि प्रत्यक्ष में तो ऑटो वाले की प्रशंसा हो जाये और परोक्ष में मेरा ये उदार कृत्य भी दूसरों तक पहुँच जाये।
रास्ते में पड़ने वाले बाज़ार से जब मैंने दूध का पैकेट लेने के लिए ऑटो रोका तो ऑटो वाले ने फिर से अपनी सज्जनता का परिचय देते हुए मुझे ऑटो में बैठे रहने का इशारा किया और मुझसे पैसे लेकर स्वयं उतर कर दूध का पैकेट ला कर मुझे दे दिया। अब तो उसे बख़्शीश देने का निर्णय और भी दृढ़ हो गया, साथ ही सुनाये जाने वाले किस्से में उसकी प्रशंसा के एक-दो वाक्य और जुड़ गए। घर पहुँच कर मैंने पर्स में से किराये के लिए पचास रूपये का नोट निकालने के बाद जब दस का नोट और निकालना चाहा तो पाया कि मेरे पास छुट्टे रुपयों में बस बीस रुपये का एक नोट ही है, शेष सभी सौ और पाँच सौ के नोट थे। उदारता और व्यावहारिकता के बीच चले कुछ सेकेंड्स के संघर्ष में आखिरकार व्यावहारिकता के ये तर्क जीत गए कि माना किराया उसने ज़्यादा नहीं मांगा लेकिन ऐसा कम भी तो नहीं है। देखा जाये तो मीटर से तो 40 रुपये ही बनते थे। वो तो ओला और उबर के आने से पहले मांगे जाने वाले अनाप शनाप किराये के सामने मुझे पचास रूपये कम लग रहे हैं। परदों के कारण उसे दूसरों से सवारी ज़्यादा मिलती होंगी और स्वयं दूध लाकर देने के पीछे उसकी मंशा समय बचाने की भी रही होगी क्योंकि मुझे परदा हटाने में अतिरिक्त समय लगता। इन तर्कों से आश्वस्त होते ही मेरे हाथ में आया बीस का नोट पर्स में ही छूट गया ।

शोभना श्याम,

गौतमबुद्धनगर, भारत

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