वर्तुलाकार में घुमती ज़िन्दगी
इसी चक्रव्यूह में रहने और
निकलने के बीच दृश्य होती है,
प्रकृति की अठखेलियों और
मानव जीवन की समानता।
देखती हूं अपनी खिड़की से
एक छोटा टूकड़ा व्योम का
उस पर टंका हुआ है चांद
अपनी पूरी चांदनी बिखेरता
कहीं दूर बैठी धरती पर।
देख लेती हूं वो कुरुप ठूंठ
जो हरा-भरा पेड़ था कभी,
फिर पेड़ हो जाएगा अगर
उसको छोड़ दिया जाएगा
उसके अस्तित्व के साथ।
देखती हूं अकुलाहट उस
झील की जो थोड़ी देर की
शांति मांगती है पहाड़ से
पर वो हंसता है और, और
पत्थर लुढ़का देता है उसमें।
#शिवानी गुप्ता, इन्दौर