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वो जब भी ज़हन में आया – जाया करता है,
दिल का काग़ज़ नम हो जाया करता है !
यूँ अंदर – अंदर सूखे के हालात बहुत,
दिल बाहर – बाहर जश्न मनाया करता है !
दिल जैसे कोई डरा हुआ सा परिंदा जो,
बस आहट पाते ही उड़ जाया करता है !
यूँ जाने कितने चेहरे हम से मिलते हैं,
दिल एक उनको ही बस चाहा करता है !
इक उम्र हुई तूफान की ज़द से बाहर हूँ,
फिर कौन मिरी क़िश्तियाँ डुबोया करता है !
कब तक किसका साथ है सूनी राहों पर,
ये सोच के मन अकसर डर जाया करता है !
#पं.संतोष मिश्र “राज” इन्दौर
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