जीवन का सर्वश्रेष्ठ शब्द ममत्व है जो निस्वार्थता का परिमार्जित रूप है । माता पिता का अपनत्व ही ममत्व है जो हमारे मां के गर्भ में आने से पहले ही अपना अस्तित्व हमारे होने वाले माता पिता के समर्पण
में दिखाई देने लगता है। कितने सारे रंगीन सपनों के बाद एक नए जीवन की उत्पत्ति होती है । कितनी ही दुआओं, दुलार और बलिदानों के द्वारा हमारा लालन-पालन होता है । माता-पिता और अपनों का कितना सारा ममत्व हम पर उड़ेला जाता है। हमारे हर नखरे को मुस्कुराते हुए सहते हैं। हमारी गलतियों को क्षमा करते हैं और हमें अपना पेट काटकर जीवन की सुंदरता से रूबरू कराते हैं। हम कल्पना की दुनिया दुनिया मैं पंख लगा कर उड़ते- उड़ते हुए कब बड़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता । उसके बाद अपने मां-बाप की कई आशाओं की पूर्ति का माध्यम बन जाते हैं । कितने सुंदर अनमोल से रिश्तो की दुनिया से हमारा परिचय कराया जाता है ।पल -पल हर पल। लगता है यह घर, समाज नहीं ,यह तो सच्चा स्वर्ग है। हर ओर जहां सिर्फ जीवन की सहजता, रंगीनियों अबाध रूप से चलती रहती हैं।
फिर जीवन के सबसे निर्मम सच्चाई से हमारा वास्तविक परिचय होता है । उस दिन जब हमसे हमारे ममत्व का स्त्रोत रूठ कर दूसरे दुनिया में कहीं चला जाता है ।
जीवन सुख जाता है अचानक । सदाबहार जंगल एक निर्जन रेगिस्तान में परिवर्तित हो जाता है और हम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर इस क्रुर परिस्थिति का सामना करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। ना चाहते हुए भी जीने की मजबूरी हमारे सामने कोबरा की भाँति खड़ी हो जाती है।
हमें फिर से मजबूत रूप से खड़ा होना पड़ता हैउन परिस्थितियों के लिए जिन्हें हमारे माता पिता हम पर छोड़ जाते हैं अपनी ही तरह की एक जिम्मेदारी उस परिवार को संस्कारित रूप से आगे बढ़ाने के लिए
हमें खुद को तैयार करना पड़ता है। उन्हीं की प्रतिकृति बनने का अपने अंदर पहाड़ से गमों को दबाकर खुश रहने का, वक्त के साथ चलने का ,खुद को लुटा कर औरों को सजाने संवारने का। हम तभी इस संसार को जो स्वर्ग सा होता है। उस को बनाने की कठिनाइयां क्या होती है इसको जान पाते हैं। यह सब माता-पिता के साथ इस प्रकृति के साथ मजबूत रिश्ते बनाकर चलने की ओर इशारा करता है वह निस्वार्थ प्रेम जो अपरिमित है, अनश्वर है, सहज और सरल है।
हमने ही ना जाने कितनी खाई या गड्ढों से उसे आहत कर दिया है कि आज हमारा समाज ममत्व तक के उस पवित्र स्रोत को सुखा चुका है या सुखा रहा है। तभी तो आज समाज में अविश्वास ,हिंसा, प्रतिशोध की भावना दिन- प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । हम भौतिकता को ही सुख समझने लगे हैं और अपने माता पिता को वृद्ध आश्रम में भेज चुके हैं। कितनी पीड़ा होती होगी उन माता-पिता को जिन्होंने अपना सारा जीवन कतरे कतरे करके हमें सजाने संवारने में खर्च कर दिया होगा। हम उनकी भावनाओं को भूल चुके हैं या उपेक्षित कर चुके हैं ऐसी स्थिति में हम अपने संतानों से क्या ममत्व की भावना इच्छा कर सकते हैं। आने वाले समय में कुछ लोगों ने तो अपने क्षुद्र लाभ के लिए संसाधनों के लिए कितने ही माता-पिताओं का आंचल रक्त रंजित कर दिया है। धरती मां के कराहों को सुनना बंद कर
दिया है। अपनी संवेदना सिर्फ अपने भौतिक लाभ के लिए और अहंकार की संतुष्टि के लिए हमने अपनी धरती मां को छलनी कर दिया है उसके प्राकृतिक संसाधनों को अपने उच्च रहन-सहन के लिए तहस-नहस कर दिया है ।
हमारे माता-पिता ने ऐसा सोच कर तो हमें इतनी विशाल सृष्टि को हमारे हाथों में यूं ही नहीं सौंपा होगा ना। हमसे सृजनात्मकता का वादा लिया होगा ना कि विनाश का ।
ममत्व की व्याख्या को हम अपनी मां के आंचल से थोड़ा सा हटकर सृष्टि माता धरती माता के बारे में सोचना होगा। तभी जीवन की सार्थकता का निर्माण होगा और इस विशाल सृष्टि का कर्ज चुकाने में हमारी मदद करेगा आइए हम जगत माता पिता के प्रति पूरी तरह समर्पित होकर अपनी ही मां के कोख से उऋडी होने में अपना योगदान प्रदान करें और आने वाली पीढ़ियों को सचमुच स्वर्ग से सुंदर धरती और परिवार, समाज , देश को सौंप सकें।
स्मिता जैन