स्वभाव से हर व्यक्ति एक गीतकार होता है। जैसा कि कवि भर्तृहरि ने लिखा है कि “साहित्य संगीत कला विहीनः, साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीनः। तृणं न खादन्नपि जीवमानः, तद्भागदेयं परम पशुनाम्।।” हर मनुष्य में एक स्वाभाविक कवि बसता है, एक कलाकार रहता है, एक संगीतज्ञ तान छेड़ता है। यह स्वीकार करने में भी विस्मय नहीं होना चाहिए कि दिव्यांग मूक-बधिर के भीतर भी संगीत की सरस धारा बहती है जिसे हमारी प्रज्ञा प्रायः चिह्नित नहीं कर पाती। साहित्य की विविध संस्थाओं से जुड़कर अहर्निश हिंदी माँ की सेवा में संलग्न सेवा निवृत्त अभियंता देवभूमि उत्तराखंड के प्रवासी बड़े भाई श्री शिव मोहन सिंह भी इससे अछूते नहीं हैं। काव्य का कीड़ा इनके रग-रग में बसा है। गीत का माधुर्य इनकी रसना का आस्वादन है।
किशोर वय की जागृति के बाद रसिकायु में सन् 2018 में प्रकाशित काव्य पुस्तक मन हुआ मधुमास में कवि का मन मयूर नाच उठता है-
“मन हुआ मधुमास अब तो,
इक बहाना चाहता हूँ।
गीत आया है अधर पर,
गुनगुनाना चाहता हूँ।”
आलम्ब, उद्दीपन, अनुभाव और संचारीभाव से लबरेज कवि का आकुल मन अनिश्चय की स्थिति में न जाने किससे (स्वयं से या जग से) सवाल करने लगता है-
“मन हुआ मधुमास,
बोलो क्या करें?
हर तरफ उल्लास,
बोलो क्या करें?”
कोई भी कवि चाहे श्रृंगार में कितना भी निमग्न हो जाए, किन्तु जब बात राष्ट्र की आती है तो वह समझौता नहीं करता। दहाड़ने लगता है। सर्वस्व न्यौछावर के लिए तत्पर रहता है। इस भाव को देख सकते हैं-
“बहुत हो चुकी मक्कारी अब,
‘बात वतन की’ करना होगा।
भारत माँ के लाल सभी हैं,
‘भारत की जय’ कहना होगा।”
न केवल गीत बल्कि नवगीत, कविता मुक्तक एवं दोहा सृजन में भी आप बेहद समृद्ध हैं। गद्य के आँगन में भी पखेरू बन जाने लगे हैं। तत्सम और देशज शब्दों की आँख मिचौली अनायास ही मानस में रसाप्लावन ला देती है। एक दोहा द्रष्टव्य है-
“गली-गली में घूमती, पुरवा संग सुगंध।
मर्यादा बेचैन है, टूट रहे अनुबंध।।”
मानव एक सामाजिक प्राणी है इसलिए भावनाओं का विनिमय महत्वपूर्ण है। ‘अवाक्’ नहीं रह सकता। क्षणिक मौनता भी खलती है और एकाकीपन विक्षिप्त कर सकता है। इस सम्बंध में एक मुक्तक देखना ठीक रहेगा-
“मौन बस्ती हुई, कुछ दुवा कीजिए।
दिल की सुन लीजिए, कुछ सुना दीजिए।
इस तरह मौन रहकर, मलिन होता मन,
प्रीति का गीत अब, गुनगुना लीजिए।”
आलोच्य साहित्यकार शिव मोहन सिंह जी को प्रायः मैं पढ़ता रहता हूँ। इनकी रचनाएँ आहिस्ता से उर के प्रांगण में उतरकर चिंतन हेतु विवश कर देती हैं बिना धूम-धड़ाके के। माधुर्य व प्रासाद का ऐसा संतुलित पाठकगण को अनायास ही विलेय बना देता है। संततुष्ट कर देता है, संतृप्त कर देता है। आधुनिक विशाल संख्य साहित्यकारों में एक अभियंता द्वारा अपनी लेखनी से एक स्थान बना पाना गौरवान्वित करता है। साहित्य को साइंस का ऋणी बनाता है अथवा कवि भर्तृहरि के मनुष्य के लक्षण को प्रबलता से सिद्ध करता है। विनसर पब्लिशिंग कं० देहरादून से प्रकाशित 105 पृष्ठों वाला सजिल्द मन हुआ मधुमास किसी भी ऋतु में मधुमास की अनुभूति कराने में सक्षम है।
पुस्तक: मन हुआ मधुमास (काव्य संग्रह)
कवि: श्री शिव मोहन सिंह
प्रकाशक: विनसर पब्लिशिंग कं० देहरादून
संस्करण: प्रथम (सन् 2018)
मूल्य: रुपये 150/- मात्र
संपर्क: 9627145104
डॉ अवधेश कुमार अवध
साहित्यकार, संपादक एवं अभियंता