आज भी उसे काम नहीं मिला था । वह झंडा चैक के चबूतरे पर उदास बैठा था । उसकी माली हालत ऐसी नहीं थी कि वह तीन-तीन दिनों तक मजदूरी न करे और अपने परिवार का पेट भर ले । फिर उसे मुनिया के स्कूल की फीस भी तो देनी थी उसे रोज स्कूल में डांट पड़ रही थी आज तो उसने साफ-साफ ही कह दिया था ‘‘पापा यदि कल तक फीस नहीं दी तो वे स्कूल से निकाल देगें…….मैं स्कूल में पढ़ना चाहती हूॅ पापा……..आप कैसे भी करके फीस जमा करा ही देना……’’ । मुनिया की आंखों से आंसू बह निकले थे । उसके कानों में रह-रह कर ‘‘मैं पढ़ना चाहती हूॅ पापा….’’ के शब्द गूंज रहे थे’’ । वह भी तो पढ़ा था । उसकी माॅ ने उसकी पढ़ाई के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए, खुद दिन भर मेहनत मजदूरी करती और जो रूपया मिलता उसकी पढ़ाई में खर्च कर देती ं रात के अंधेरे में जब सारे लाग सो जाया करते तब माॅ चिमनी की रोषनी में अपनी फटी धोती सिंया करती ताकि वह जब काम पर जाए तो उसकी फटी धोती सबकी निगाहों से बची रहे । चिमनी के उजाले में वह रात रात भर जागकर पढ़ा करता था । घर में माॅ और वह दो प्राणी ही थे । पिताजी तो वह जब दूसरी कक्षा में पढ़ता था तब ही स्वर्गवासी हो गए थे उसे इतना भर याद है कि कुछ लोग उन्हें खून से लथपथ हालत में घर लेकर आए थे । वे भी मजदूरी ही करते थे लेन्टर डालने के लिए वे सीमेन्ट भरा तसला लेकर उपर चढ़ रहे थे कि पांव फिसल गया और वे हवा के तिनके की भांति नीचे गिट्टी पर आकर पड़े थे । सारा शरीर लहुलुहान हो गया था । साथ के मजदूर जब उन्हें लेकर उसके घर आए थे तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी । माॅ बहुत भयभीत हो गई थीं । उन्होने ईटगारा का काम करना छोड़ दिया था । पर बच्चे को तो पालना था इसलिए वे कुछ घरों मे झाड़-बुहारी का काम करने लगीं थी । पर जैसे-जैसे उसकी पढ़ाई बढ़ती गई पैसों की जरूरत भी बढ़ती गई तो उन्हें फिर से ईंट गारा के काम करना पड़ा ।
माॅ की परेषानी को वह भी बहुत अच्छी तरह समझता था इसलिए चाहता था कि वह पढ़ लिख ले ताकि उसे नौकरी मिल जाए और उसके परिवार को इस मजदूरी के काम से आजादी मिल सके । वह बहुत मेहनत करके प्ढ़ाई कर रहा था । हर कक्षा में उसके अच्छे नम्बर भी आ रहे थे ं मास्साबजी उसकी तारीफ करते नही थकते थे, वे उसे पढ़ने में पूरी मदद भी करते थे । एक-एक कक्षा पसा करते हुए वह कालेज में पहुंच गया था । माॅ का शरीर जर्जर हो चुका था वे ज्यादा मेहनत नहीं कर पाती थीं । कालेज की पढ़ाई का खर्च ज्यादा था इसलिए उसने भी काम करना शुरू कर दिया था । वह कुछ बच्चों को ट्यूषन देने लगा था । पर इससे उसका काम नहीं चल पा रहा था । उसने एक दुकान में काम करना शुरू कर दिया था । वह शाम को दुकान चला जाता और वहां वेटर का काम करता । रात में जब वह थकाहारा लौटता पर अपने सुनहरे भविष्य के लिए अपनी पढ़ाई करने बैठ जाता । जीवन से संघर्ष करते हुए उसने एम.एस.सी. तक की पढ़ाई पूरी कर ली थी वह परूी यूनिर्वसिटी में मेरिट में आया था ै। उसे भरोसा था कि इतने अच्छे अंको के साथ पास होने के कारण उसे नौकरी अवष्य मिल जायेगी अब वह इंतजार कर रहा था नौकरी की ।
दर्जनों आवेदन भरने के बाद भी उसे नौकरी नहीं मिल पा रही थी । उसे जहां जानकारी लगती वह आवेदन जमा कर देता । पहिले पहिले तो वह बड़ी पोस्ट के लिए आवेदन भर रहा था पर जब नौकरी नहीं मिल पा रही थी तो उसने छोटी नौकरी के लिए भी आवेदन भरता शुरू कर दिया था । उसने संविदा षिक्षक के लिए भी आवेदन भरा पर उसकी नौकरी नहीं लग पा रही थी । हर साल उसके जैसे सैंकड़ो बेराजगार नौकरी के लिए मारामारी कर रहे थे जो सक्षम होता था उसे नौकरी मिल जाती थी पर उसके पास तो आवेदन जमा करने के लिए भी पैसे नहीं थे ं वह जिस दुकान पर पार्ट टाइम काम करता था उससे हजारों रूप्ये कर्ज लेकर आवेदन जमा कर रहा था । वह प्राइवेट नौकरी के लिए भी जगह-जगह चक्कर लगा चुका था । ‘‘नौकरी नही है’’ का साइनबोर्ड उसे दिखा दिया जाता । वह शनैः-षनैः टूटता जा रहा था । माॅ पूरी तरह बिस्तर से लग चुकी थीं । आखिर माॅ भी किनी मेहनत करती । उनकी आस भी टूटती जा रही थी । चिन्ता और कमजोरी के चलते माॅ को बिस्त्र पकड़ना पड़ा था । पर वे उसको हिम्मत जरूर देती रहती ‘‘देख तूने इतना पढ़ा है तुझे नौकरी जरूर मिलगी तू निराष मत होकृभगवान पर भरोसा रख वे तेरे लिए कुछ न कुछ जरूर करेगें’’ कहते कहते माॅ की आंखों से आंसू की बूंदें गिरने लगती जिसे वे नजरे छिपाकर फटे साडत्री के पल्ले से पौछ लेती । माॅ के बिस्तर पकड़ने के बाद उसकी स्थिति और खराब हो गई । उसे खाना बनाना पड़ता और माॅ की देखभाल भी करनी पड़ती । देापहर तक वह काम से निपट पाता फिर वह निकलता नौकरी की तलाष में । वह दनि भर यहां वहां भले ही भटकता रहता पर हर पल उसे माॅ की चिन्ता सताती रहती । माॅ तो बिस्तर से उठकर पानी तक नहीं पी सकती थीं
। इसका एक ही हल था कि माॅ की देखभाल और दो टाइम भोजन की सुविधा के लिए उसे शादी कर लेनी चाहिये । पर शादी कर वह अपनी पत्नी को खिलायेगा केसे ं जिस दुकान पर वह काम करता है उससे तो इतना पैसा भी नहीं मिलता कि वह खुद ही दोटाइम का खाना खा सके इस पर माॅ के इलाज में भी पैसा लग रहा था । उसने दुकान में पूरे समस नौकरी करने का निर्णया था । उसकी शादी हो गई थी और देखते देखते ही मुनिया का जन्म भी हो गया था । उसे अभी उम्मीद थी कि उसे नौकरी अवष्य मिलेगी । वह अपने जीवन की गाड़ी को रो गाकर ढो रहा था । वह अक्सर अपनी एम.एस.सी. की डिग्री को देखता और मन करता कि इसे फाड़ कर फेंक दे पर उम्मीद बाकी थी इसलिए वह उसे फिर सहेज कर रख लेता ।
उसने दुकान से नोकरी नहीं छोड़ी थी बिल्क दुकान ही बंद हो गई थी । उसकी आंखों के सामने अंधियारा छा गया था । यही तो उसके लिए इकलौता साधन था । दुकान का कजा्र तो उसने धीरे-धीरे चुकता कर दिया था पर घर गृहस्थी के चलते कोई न कोई कजां बना ही रहता था । दुकान बंद हुई तो दो जून की रोटी के लाले पड़ गए । उसने हर जगह प्रयास कर के देख लिए पर कहीं काम नही मिला । अब उसके पास एक ही रास्ता था मजदूरी करने का । शुरू-षुरू में उसे हिचक हुई पर जैसे ही मुनिया को भूखे पेट देखता उसकी सारी हिचक दूर हो गई । एक दिन वह सिर पर गमछा ओढ़कर झंडाचैक के चबूतरे पर जाकर बैठ गया । इस चबूतरे पर प्रतिदिन ऐन सुबह ही सैंकड़ों मजदूर इकट्ठा होते थे और यहां बोलियां लगती थीं । मजदूरों की बोलियां
‘‘कितने रूपये लेगा…..’’
‘‘आठ घंटे काम करने के तीन सौ रूपया’’
‘‘बहुत मंहगा है चल तू रहने दे……..हां तू बता…..’’
मोलभाव होते होते दो सौ से लेकर डेढ़ सौ रूपये मंें बात टूटती और वह मजदूर उसके साथ चला जाता । किसी मकाने का लैंटर डलना होता तो जरूर एक साथ दर्जनों मजदूरों को ले जाया जाता पर इसका मोलभाव ठेकेदार करता ।
‘‘लैंटर का काम बहुत मेहनती होता है और रिस्की भी ………..चार सौ रूपया प्रति मजदूर से पांच पैसा कम नहीं होगा………’’ ठेकदार मजदूरों को तो दो सौ रूपये ही देता पर खुद चार सौ रूपये लेता । झंडा चैक शहर के बीचों बीच तब बनाया गया था जब भारत को गुलामी से आजादी मिली थी । चबूतरे पर बने खम्बे पर भारत का ध्वज लहराया गया था । आम जनता खुष थी अब उनके दिन फिर जायेगें पर …..दिन कहां फिरे । वह झंडाचैक के चबूतरे पर बैठकर उस खम्बे को जरूर देखता जिस पर पन्द्रह अगस्त और गणतन्त्र दिवस पर तिरंगा लहराया जाता था । वह तिरंगे को मन ही मन नमन करता और मन में राष्ट्रगान गुनगुनाता । शुरू-षुरू में उसे काम मिलने लगा था वह दिन भर ईंट गारा ढोता और शाम को रूपये लाकर अपनी पत्नी के हाथों में रख देता । मजदूर की कोई छुट्टी नहीं होती वह सप्ताह के हर दिन काम करता ं ऐन सुबह काम पर निकल जाता उसकी पत्नी गमछे में दो रोटी और प्याज बांध देती जिसे वह दोपहर में खा लेता ।
पिछले दो दिनों से उसे कोइ्र काम नहीं मिला था । उसके पास इतनी जमा पूंजी नहीं थी कि वह ऐसे ही बैठे-बैठे खा सके । आज भी सारे मजदूर काम पर जा चुके थे वह अकेला बैठा था चबूतरे पर तभी उसके कानों में उसको पुकारे जाने की आवाज आई थी । आवाज पहचानी सी लग रही थी उसने पलट कर देखा ‘‘ अरे……….राजेष………तुम……’’ । राजेश उसके साथ कालेज में पढ़ता था । उसके साथ ही उसने एम.एस.सी. की पढ़ाई थी की थी । राजेष की नौकरी शिक्षक के रूप में लग गई थी । बाद में वो प्राचार्य भी हो गया था । उसे राजेष के यूं मिलने की उम्मीद नहीं थी हालांकि उसे मजदूरी करते समय कई परिचित लोग मिल जाते थे जो उसे आष्चर्य से देखते थे । वह क्षेंप जाता था । आज राजेश को यूं सामने देख उसका चेहरा उतर गया था
‘‘कैसो हो…..राजेश…………..कहां…………नौकरी कर रहे हो…..’’
‘‘अरे ! मैं तो यहीं………हायरसैकेण्डरी स्कूल में ……प्राचार्य हंूू…….और तुम…..’’
इसी हायरसैकेण्डरी स्कूल में तो वह भी पढ़ा था बहुत बड़ा स्कूल है वह । राजेश अब वहां का प्राचार्य है । उसने राजेश को नजर उठाकर देखा । उसका रहन-सहन बदल चुका था । उसे अपनी हालत पर तरस आ गया ।
‘‘तुम क्या कर रहे हो…..’’ राजेष को उसके बारे में जाने की उत्सुकता थी ।
‘‘मैं…….. बस मजदूरी……..करता…..हूॅ इ्रंटगारा ढोता हूं……’’ उसकी आंखों से आंसू झलक आए थे । राजेष के उसके बारे में कुछ मालूम नहीं था । उसे उसकी बात सुनकर आष्चर्य भी हुआ और दुख भी ।
‘‘स्वारी………यार……मुझे……खैर छोड़ो….आओ……….हमारे साथ आओ’’
श्राजेष उसे अपने साथ मोटरसाइकिल पर बैठाकर स्कूल ले आया था । वह शर्म से अपने आपको छिपाने का प्रयास कर रहा था पर राजेष उसे पूरे सम्मान के साथ अपने कक्ष में ले आया था । उसने घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया था
‘‘कल से ये सर गणित पढ़ायेंगें कक्षा 9 वीं में जाकर शर्मा जी से कह दो’’
वह कृतज्ञता भरी नजरों से राजेश को देख रहा था ।
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
जिला-नरसिंहपुर म.प्र.