ना कभी सोचा, ना कभी सुना
ना कभी देखा, ना कभी चाहा
देखो यह कैसा दौर आया है
उठ रहा है धुंआ चारों ओर से
जल रही हैं सिर्फ चितायें दिन-रात
बह रही है लाशें कहीं नदियों में
दफन हो रहा है आदमी कहीं बालू में।
मौन बैठा है घरौंदो में दुबका हुआ सा आदमी
बस आ रही है रुदन और सिसकियों की आवाजें
चारों ओर से अपनों को खोने की ।
बेबस हो रहा है विज्ञान आज
नित नई खोजों को करते-करते
उस अदृश्य किंतु महाशक्तिशाली वाइरस से।
मानवता के प्रहरी सजग होकर
बांट रहे हैं दुःख- दर्द सिसकियों के
उठ रही हैं गुहारें मदद की चारों ओर से।
लेकिन गुम है कहीं सत्ता इस दौर में
चल रहा है सिर्फ एक खेल राजनीति में
मेरी टोपी तुझको और तेरी टोपी मुझको पहनाने का।
देखो यह कैसा आपदा का दौर आया है जहां अस्पताल और शमशान ही दिनचर्या बन गया है।
स्मिता जैन
छतरपुर (मप्र)