कोरोना की मधुशाला

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कहो करोना क्या कर पाए,
जब खुल जाऐं मधुशाला।
जब कज़ा मुकाबिल खड़ी हमारे,
तब बेमानी लगती हाला।।

एक तरफ तो शिफा लाज़िमी,
एक तरफ गड़बड़झाला।
आमद में तल्लीन सियासत,
श्वेत वसन मुद्दा काला।।

क्यों मौतों को तौल रहे ‘वो’ ,
बनी हलाहल जब हाला।।
बंद तिजारत करो कज़ा की,
मीत लगे ‘मधु’ पर ताला।।

केवल दुआ दवाई शिफा बस,
चले सांस की नित माला।।
सच मानो विषपायी हाला,
अब काल कोठरी मधुशाला।।

प्रखर दीक्षित*
फर्रुखाबाद

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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