उसी शहर में राजेश अपनी प्रेमिका के साथ रह रहा था, जिसमें उसकी पत्नी रश्मि कई वर्षों से अपने तीन बच्चों के साथ उससे अलग रह रही थी। वह विषय-वासना तृप्ति की भावना लिए आज काफी दिनों के बाद पत्नी से मिलने यकायक आ पहुँचा था। पत्नी की दुखती रग पर जैसे ही उसने स्पर्श किया कि पत्नी बुरी तरह उस पर बिफर पड़ी।
‘‘पाँच साल पहले आप ही मेरे सबसे बड़े आराध्य देव थे। आप ही मेरे लिए शिव, राम, कृष्ण और हनुमान थे। आपके लिए मैं राधा, पार्वती, सीता, मीरा और रुकमणी थी। अब आपने ही मुझे महाकाली और दुर्गा बना दिया है। आपने ही मेरी जिन्दगी में ऐसा महाविष घोल दिया है, जिसे मैं न हजम कर पा रही हूँ, न ही उगल पा रही हूँ। आप क्यों आ जाते हैं मुझे पीड़ा देने। क्या आपको मेरे आँसुओं में नहाना अच्छा लगता है … आप वहीं जाइए अपनी कमला के पास …. अब वही आपकी राधा है समझे वकील साहब !
‘‘कैसी बात करती हो रश्मि ! तुम ही मेरी रानी हो !! तुम ही मेरी जानी है … आज तो नव वर्ष है !!!
पति राजेश के नेत्र वासना की मादकता में नहा रहे थे, और पुनः वह पत्नी के कंधों को जैसे ही सहलाने को हुआ कि पत्नी ने यकायक हाथ झटकते हुए कहा।
‘‘इन अपवित्र हाथों का स्पर्श मुझसे मत करिए वकील साहब ! आप नव वर्ष अपनी रखेलों के साथ मनाइए। मैं आपके लिए मर चुकी हूँ। बस, आपके तीनों बच्चों को पाल रही हूँ, क्योंकि मैं उनकी माँ हूँ।’’
इतना कहते-कहते रश्मि की आँखों की जल-रश्मियाँ शबनम-सी उभरकर टप-टप टपकने लगीं। राजेश काम वासना की अग्नि में उतावला हुए जा रहा था। उसने पुनः रश्मि को स्पर्श करने का प्रयास किया, तो रश्मि ने अपने आँचल से अश्रुओं को पौंछते हुए, फिर से अपने पति का हाथ झटक कर तेज स्वर में बोली।
‘‘आखिर मर्द को एक ही चीज दिखाई पड़ती है, इसके अलावा और कुछ नहीं। तुमने कभी सोचा है कि मैं कब से तिल-तिलकर जी और मर रही हूँ। जब मन किया तभी भूखे-भेड़िये की तरह आ टपकते हो। मौके की तलाश में रहते हो। अब देखा कि तीनों बच्चे अपने बुआ के साथ छुट्टियाँ मनाने लखनऊ गए हैं, तो यहाँ आ टपके ………… ।’’
‘‘अब तो मैंने पूरा तन-मन इन बेजान मूर्तियों को अर्पित और समर्पित कर दिया है, इसी में मुझे आनंद और सुख की अनुभूति होती है, समझे ! वकील साहब।’’
‘‘ये बेजान मूर्तियाँ तुझे क्या सुख देंगी रश्मि? असली आनंद तो तुझे मुझसे ही मिलेगा।’’
‘‘तुम्हारे झूठे, फरैबी, धोखेबाज आनंद की मुझे आवश्यकता नहीं है वकील साहब ! मुझ जैसी सीधी-साधी औरत को तुमने ही चण्डी बना दिया है वकील साहब ! मेरे लिए काम-वासना फिजूल की चीज हो गई है। इस शरीर को स्पर्श करने का प्रयास मत करिएगा, वकील साहब।’’
‘‘डार्लिंग रश्मि ! तू हमसे इतनी नाराज है कि अपना बदन तक न स्पर्श करने देगी।’’
‘‘वकील साहब ! इन अपवित्र हाथों से इस पवित्र तन को स्पर्श करने का कुत्सित प्रयास मत करो। ये अब तप-तप कर सीता की तरह पवित्र हो गया है, इसमें किसी भी तरह का दाग लगाना, अब आप जैसे दुराचारी का साहस नहीं है।’’
‘‘कैसी बात करती हो रानी ! आखिर हूँ तो तुम्हारा पति ही। कोई गैर तो नहीं !’’
‘‘वकील साहब ! आपने पतिधर्म निभाया ही कहाँ? आप यदि पतिधर्म निभाते तो ब्राह्मण होकर कमला और शान्ति जैसी पतित और छिनाल औरतों के यहाँ मुँह न मारते फिरते। मैं तो आपकी करतूतों को कब से देख रही थी, लेकिन सोचती रही कि आप सुधर जाएँगे, पाँच वर्ष से तो आपने हद ही कर दी कि मैं यहाँ एक-एक पैसे को तरसती रही और आप वहाँ लाखों-लाखों खर्च करते रहे। आप कितने बेशर्म आदमी हैं कि जब चाहे तब मुँह उठाए चले आते हो। यदि मैं उस दिन कचहरी में जाकर आपकी बेइज्जती न करती, तो आप बच्चों के गुजारे लायक पाँच हजार रुपया महावार भी न बाँधते। डेढ़ वर्ष तो कैसे काटी है, यह तो मैं ही जानती हूँ कि बच्चों को पढ़ाने में मेरे पूरे जेबर तक बिक गए, लेकिन आप टस से मस नहीं हुए। आखिर मैं अपनी पीड़ा को कैसे भुला सकती हूँ, इस कमरतोड़ महँगाई में, अपने बच्चों को कैसे पालती हूँ, यह तो मैं ही जानती हूँ, वकील साहब …।’’
कड़वा सच सुन-सुन कर राजेश के कानों में सीसा पिघलने लगा। चक्षुओं में मादकता की जगह क्रोध के लाल-लाल डोरे उभरने लगे। वह क्रोधित होते हुए बोला।
‘‘अपने आपको समझती क्या है मेरे टुकड़ों पर पलने वाली औरत। जाने किस बात का घमंड करती है। किसके ऊपर घमंड करती है। तेरे जैसी सैकड़ों औरतें मेरा चरण वंदन करती है, तू तो है क्या …?’’
रश्मि क्रोध से तमतमाकर बोली।
‘‘वकील ! जरा जवान सँभाल कर बोलो। मैं तुम्हारे बच्चों के लिए जी रही हूँ और उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रही हूँ। मैं तुम्हारे टुकड़ों पर नहीं पल रही हूँ। मेरा यह तो हक है, मैं इस घर में तुम्हारी पत्नी बनकर आई थी, कोई रखैल बनकर नहीं, समझे। जो औरतें तुम्हारी चरण वंदना करती हैं, वो मेरे पैर का धौवन भी नहीं। तुम वकील भी मेरी बदौलत बन गए, नहीं तो अपनी बहनों की गुलामी करते-करते मर जाते।’’
‘‘जब देखो घमंड में चूर रहती है। जाने अपने आपको समझती क्या है? जब देखो तब कहती है कि मैंने वकील बनाया है, तूने क्या वकील बनाया है?’’
‘‘हाँ ! मैंने वकील बनाया है। आदमी सच्चाई को जल्दी भूल जाता है। जरा उन दिनों को याद करो, जब घर का खर्च भी मुश्किल से चलता था और हम एक कमरे में कैसे गुजारा करते थे। मैंने ही कहा था कि वकालत की पढ़ाई कर लो। तब तुमने कहा था कि पढ़ने के लिए पैसा कहाँ से आएगा, तब मैंने ही हिम्मत बँधाई थी कि पैसा मैं दूँगी … तुमने कहा था कि कहाँ से … तो मैंने कहा था कि माँ के दिए हुए गहने बेचकर तुम्हें पढ़ाऊँगी … और मैंने करके दिखाया … यहाँ तक कि दीदी ने रजिस्ट्रेशन कराने तक के लिए पैसे नहीं दिए थे, वो भी मैंने ही कराया और वकील बनाया … मुझे उस दिन कितनी खुशी हुई थी कि जिस दिन तुम वकील बनकर अपने पैरों पर खड़े हो गए थे … सब कुछ इतनी जल्दी भूल गए वकील, अभी तो अट्ठारह वर्ष ही हुए हैं समझे !
राजेश के चक्षुओं के लाल-लाल डोरे अब धीरे-धीरे स्वाभाविक अवस्था में आ रहे थे। सच में इतना दम होता है कि कामुक से कामुक व्यक्ति को भी सच्चाई को स्वीकार करना ही पड़ता है। लेकिन कामुकता जितने समय आँखों और दिमाग में रहती है, स्त्री और पुरुष अंधे हो जाते हैं और वह किसी भी हद तक चले जाते हैं।
राजेश यकायक उठा और त्यौरियाँ चढ़ाये निःशब्द अवस्था में घर से बाहर चला गया था। रश्मि उसकी पीठ को जाते हुए देखती रही। उसने एक बार भी नहीं कहा कि बैठ जाइए। वह अतीत के पृष्ठों को मन ही मन परत-दर-परत खोलते ही जा रही थी कि रश्मि का मोबाइल घनघना उठा। अपने आँसुओं को आँचल से पौंछते हुए उसने मोबाइल का बटन ऑन किया।
‘‘हैलो ! हाँ बेटा ! सब ठीक तो है !’’
‘‘हाँ ! मम्मी ऑल आर ओके। आप कैसी हैं?’’
‘‘बेटा ! बिल्कुल ठीक हूँ। नववर्ष कैसी रही तुम सबकी !’’
‘‘मम्मी ! हैप्पी न्यू ईयर पर बड़ा मजा आया। अचल और दिव्या ने भी बुआ के बच्चों के साथ खूब मौज मस्ती की।’’
‘‘क्या-क्या किया, जरा बताओ तो !’’
‘‘खाने-पीने की ढेर सारी चीजें थीं। एक कमरे को फूलों से सजाया है। कमरा गुलाब के फूलों से महकता रहा। डेक पर गाने चलते रहे और हम सब ने खूब डांस किया।’’
‘‘अरे ! वाह ! मजा आ गया तुम सबको !’’
‘‘मम्मी आपने नहीं बताया कि आपकी नववर्ष कैसे रही, पापा तो कुछ गिफ्ट लाए होंगे।’’
‘‘हाँ ! हाँ !! बेटा वो मेरे लिए प्यारा-सा गाउन लाए थे, क्योंकि मुझे सबसे ज्यादा गाउन पहनना पसंद है ना ! वो अभी-अभी तो गए हैं।’’
‘‘ओह मम्मी ! बहुत अच्छा।’’
‘‘अच्छा ! बेटा ज्यादा बिल न बढ़ाओ और छुट्टियों में एनजॉय करो। एग्जामों की सारी थकान मिट जाएगी। बाय बेटा !’’
‘‘बाय मम्मी !’’
हृदय पर पर्वतों-सी पीड़ाओं का बोझ, फिर भी बच्चों की खुशी में खुशी, शाश्वत सनातन परम्परा को निभाती आ रही यह भारतीय नारी। ऐसे ही उसे महान नहीं कहा गया है। भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और बाजारबाद की चमक में भी उसने अपनी जीवंतता और महानता के गुणों को बरकरार रखा हुआ है। बच्चों की खुशी के लिए वह बहुत बड़ा झूठ भी बोल सकती है, बच्चों को हर प्रकार से सुख देना उसकी रग-रग में समाया हुआ है।
वह आन्तरिक वेदना को कम करने के लिए घर के मन्दिर के सामने आकर बैठ गई। आँसू स्वतः ही झर-झर कर झरने से बहते रहे। वह मन्दिर में सजाई हुई मूर्तियों से प्रश्न पूछती रही कि उसने कौन से पाप किए हैं, जिसकी सजा कई वर्षों से उसे मिल रही है, पति उसे प्रेम करने की बजाय आज भी भोगने के लिए जीभ लपलपा रहा था, क्या नारी केवल भोगने की वस्तु रही है कि तब चाहे जब भोगा और तब चाहे जब दूध में मक्खी-सा निकालकर फेंक दिया … नहीं, नहीं ये परम्परा कभी नहीं रही भारतीय समाज में … नारी का सम्मान सदा से होता आया है … जहाँ नारी का सम्मान होता है, उस घर में देवता निवास करते हैं …। ये परम्परा कैसे टूट रही है प्रभु … क्या कुछ नारियाँ ही इस शाश्वत परम्परा को तोड़ने की जिम्मेदार हैं … हाँ ! हाँ !! यही अधिक सत्य लग रहा है … क्या आज नारी मर्यादा रूपी आँचल को उतारकर अब चड्डी और बनियान पहन कर विज्ञापन की वस्तु हो गई है … पुरुष तो उसके नग्न स्वरूप पर मरेगा ही … धन की भूख के लिए नारी अपने सौन्दर्य को बाजार में विक्रय कर रही है … ऐसी नारियों को अब अबला, सबला या चपला कहूँ, जिन्होंने भारतीय मर्यादा को भीड़ भरे चौराहे पर बेआबरू कर दिया है और ऐसी ही नारियाँ सुर्खियों में हैं उनकी पूजा और सम्मान हो रहा है उन्हें पद्म भूषणों जैसे …। हे प्रभु ! क्या हो गया है इस देश की नारियों को … मेरे पति को धन के बदले में वे चपलाएँ झूठा प्यार न देतीं, तो क्यों वह इधर-उधर मुँह मारता और उन पर धन खर्च करता। उन्होंने ही मेरी शान्ति को छीना है, पति के साथ-साथ वो भी कम अपराधिनी नहीं है … कई वर्ष तो मैं भी पति को सुधारने का उपक्रम करती रही, लेकिन जब वो नहीं सम्भला, तो एक दिन मैंने निर्णय ले ही लिया कि दुराचारी पति का इस घर में कोई काम नहीं है … मैंने उसका जरूरी सामान कपड़े और कोर्ट की फाइलें आदि छत पर निकालकर रख दीं और कमरे में ताला लगा लिया … पाँच वर्ष से ऐसे ही चल रहा है प्रभु … तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है … कितनी कच्ची गृहस्थी को मैंने सम्भाला है, इसके लिए मैंने गहने तक बेच दिए … जो कि एक स्त्री को कितने प्रिय होते हैं … बड़ा पुत्र विकल उस समय ग्यारवीं कक्षा में पढ़ रहा था और उससे छोटा अचल नौवीं में तथा दिव्या जब कक्षा प्रथम में ही पढ़ रही थी … तब से अब तक गंगा में कितना जल बहकर सागर में मिल गया है प्रभु … आपसे कुछ भी नहीं छिपा है, मइया … आप तो मेरे हृदय में भी बिराजमान हैं और इन श्रद्धा रूपी मूर्तियों में भी … मैं आपके सहारे ही तो जीवित हूँ। मइया ! विकल और अचल अब तो ट्यूशन पढ़ाकर और छात्रवृत्ति से अपनी पढ़ाई, मोबाइल और बाइक का खर्च निकाल लेते हैं … पाँच हजार रुपया महीना लड़-झगड़कर बँधवा ही लिया है वकील से, उसकी भी हिम्मत आपने ही दी। मइया ! जब बच्चों की रोटी के लाले पड़ने लगे, तब तुमने ही मदद की … और अब किसी तरह पाँच हजार में घर का खर्च चल ही जाता है … महँगाई है लेकिन सब चल ही रहा है, किसी तरह … आपसे अपना सब सुख-दुख कहने से मन का बोझ, पीड़ाएँ खत्म हो जाती हैं … फिर मैं तरोताजा और जीवंत हो जाती हूँ …।
वह अपने हृदय को इस तरह आश्वस्ति देते हुए, काफी समय तक घर में बने मन्दिर के सामने एकटक बैठी स्थापित मूर्तियों में ईश्वर को तलाशती रही।
डॉ. राकेश ‘चक्र’
मुरादाबाद