भारतवर्ष सदैव से एक अलौकिक राष्ट्र रहा, जहां अपने महापुरुषों का स्मरण करने की परंपरा रही है। अनेक सन्तों, वैज्ञानिक, क्रांतिकारियों की जन्मभूमि होने के कारण भारत विश्व मे आध्यात्म का केंद्र ही नही रहा अपितु अपनी भूमिका को भारत ने विश्वगुरु बनकर सदैव निभाया भी है। आज से लगभग 1230 वर्ष पूर्व एक निर्धन ब्राह्मण परिवार जो केरल के कलाड़ी ग्राम में निवास करता था, शिवगुरु व सुभद्रा दोनों पति पत्नी अनन्य शिव भक्त थे। अपनी संतान न होने के कारण वे अत्यंत व्यथित थे, अपने इष्ट से सदैव ही सन्तान प्राप्ति का आशीष मांगते। एक दिन महादेव ने इस परिवार को आशीष दिया, घर में बालक का जन्म हुआ। महादेव के आशीष से पुत्र प्राप्ति होने के कारण इस बालक का नाम शंकर रखा गया।
शंकर बचपन से ही जिज्ञासु, ज्ञान अर्जन को समर्पित रहे, आप यह जानकर आश्चर्यचकित हो सकते है कि जिस आयु में बच्चे खेल खिलौनों से खेल में व्यस्त रहते है, शंकर ने अपने अध्ययन और आध्यात्मिक समर्पण से सबको अवाक कर दिया था। 8 वर्ष की आयु में इन्होंने सभी वेद कंठस्थ किए, 12 वर्ष तक अनेक उपनिषद शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। इसी समय उन्हें आभास हुआ कि सत्य की खोज के लिए निकलना चाहिए।
गृहस्थ से सन्यास लेने का व्रतांत भी अत्यंत रोचक है, एक दिन स्नान के लिए जब शंकर नदी के मध्य पहुँचें, एक मगर ने इनका पैर पकड़ लिया, बहुत कोशिश के बाद भी जब अपना पैर नही छुड़ा सके तब यह सोचकर कि अब यह अंत समय है उन्होंने अपनी मां से वैराग्य का वर देने का निवेदन किया। पुत्र का अंत समय देखकर माता का ह्रदय भावुक हो गया, उन्होंने सोचा चाहे सन्यासी बने जीवित तो बचा रहेगा, यह विचार कर मां ने स्वीकृति दे दी। भगवत कृपा कहें या नियति, मगर उनका पेर छोड़कर नदी में वापस चला गया, अब नदी से निकलने वाला बालक शंकर एक सन्यासी था।
इतना अध्ययन करने के बाद शंकर के मन मे अनेक प्रश्न आने लगे थे, उनके उत्तर ढूंढने तथा एक योग्य गुरु की तलाश में शंकर निकल पड़े। ओम्कारेश्वर में आकर एक संत गोविंद पाद को समाधि में लीन देखकर इन्हें लगा कि इन्हें अपने गुरु मिल गए। वे हाथ जोड़कर उनके समक्ष बैठ गए। जब उन संत की समाधि पूर्ण हुई, तब एक अद्धतिय बालक जिसके मुख से उसका तेज, दिव्यता, ज्ञान प्रकाश की भांति दीप्त हो रहा था, अपने सामने बैठा देख गुरु गोविंद पाद प्रसन्न हो गए। वास्तव में एक गुरु को भी अपने जीवन में एक ऐसे ही शिष्य की तलाश होती है जो उनके जीवन को सार्थक कर सके, गुरु गोविंद की यह तलाश शंकर को देखकर समाप्त हो गयी थी। यह क्षण एक ऐसे गुरु व शिष्य के मिलन का था जो आने वाले भविष्य में सनातन की दिशा निर्धारित करने वाले थे। यहां रहकर इन्होंने वेदांत दर्शन में ज्ञानार्जन किया, अध्यात्म, परमात्मा, निर्गुण सगुण के भेद को समझकर शंकर पुनः तत्व ज्ञान की खोज में लग गए। यही बालक शंकर आगे चलकर जगद्गुरु आदि शंकराचार्य बने। जिन्होंने सनातन के प्रचार के लिए भारत की चारों दिशाओं में 4 मठों की स्थापना की जिनका उद्देश्य सनातन का प्रचार करने वाले ऐसे ही साधक तैयार करना रहा। वास्तव में आज हम जो सनातन धर्म का स्वरूप देख रहे है वह आदि शंकराचार्य जी द्वारा ही क्रियान्वित है, अनेक पंथों, परंपराओं, रीति, रिवाजो, शैली, विचार में बटे सनातन धर्म को आदि शंकराचार्य जी ने एकीकृत कर इसकी आधारशिला को सुद्रढ़ किया। भारत की चारो दिशाओं में स्थापित ये मठ आज भी सनातन के प्रचार प्रसार में प्रमुख भूमिका निभा रहे।
• वेदान्त मठ – जिसे वेदान्त ज्ञानमठ भी कहा जाता है जोकि, सबसे पहला मठ था और इसे , श्रंगेरी रामेश्वर अर्थात् दक्षिण भारत मे, स्थापित किया गया।
• गोवर्धन मठ – गोवर्धन मठ जोकि, दूसरा मठ था जिसे जगन्नाथपुरी अर्थात् पूर्वी भारत मे, स्थापित किया गया ।
• शारदा मठ – जिसे शारदा या कलिका मठ भी कहा जाता है जोकि, तीसरा मठ था जिसे, द्वारकाधीश अर्थात् पश्चिम भारत मे, स्थापित किया गया ।
• ज्योतिपीठ मठ – ज्योतिपीठ मठ जिसे बदरिकाश्रम भी कहा जाता है जोकि, चौथा और अंतिम मठ था जिसे, बद्रीनाथ अर्थात् उत्तर भारत मे, स्थापित किया गया ।
वेदांत दर्शन, सद्गुण व निर्गुण के विचार, आत्मा व परमात्मा के संबन्ध में उनकी व्याख्या को कुछ शब्दों में नही लिखा जा सकता, इसका चिंतन करते हुए शंकर ने कई ग्रंथ लिख दिए। विश्वरेश्वर काशी विश्वनाथ के दर्शन की कामना लिए इन्होंने काशी प्रस्थान किया। वहां भी अपने भाष्यों का प्रसार जारी रखा। उपनिषदों व भगवत गीता पर इनके लिखे भाष्यों को सुनने लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। कुछ ही समय में वे जन में लोकप्रिय हो गए, उनकी वाणी व सरल व्याख्या से जनता मंत्र मुग्ध होकर उन्हें सुनते और परम शांति का अनुभव करते। ब्रह्म सूत्रों पर भाष्य लिखने की अपनी इच्छा से प्रेरित होकर इन्होंने बद्रीनाथ की ओर प्रस्थान किया, आज से लगभग 1200 वर्ष पूर्व बद्रीनाथ की यात्रा इतनी सरल नही थी, निर्जन वन, भीषण वर्षा, प्रतिकूल जलवायु, आदि यात्रियों के लिए काल समान थी। परन्तु ऋषि वेद व्यास का अस्तित्व बद्रीनाथ में है इस विचार को सुनकर अपने आप को महादेव व महर्षि वेद व्यास को समर्पित कर वे बद्रीनाथ पहुचें। लेखन के पश्चात अपने अद्वेत ज्ञान व दर्शन के प्रसार के लिए इन्होंने पुनः यात्रा आरंभ की। रुद्र नगर में इनकी भेंट कुमारिल भट्ट से हुई, इनसे शास्त्रार्थ में विजयी होने के बाद कुमारिल ने इन्हें वेदांत पर शास्त्रार्थ हेतु मंडन मिश्र से मिलने को कहा। मंडन मिश्र उस क्षेत्र के प्रकांड विद्वान थे, मंडन मिश्र व शंकर के बीच इस वचन पर शास्त्रार्थ आरंभ हुआ कि जो भी पराजित हुआ उसे विजयी प्रत्याशी का शिष्यत्व ग्रहण करना होगा। कई दिनों तक मंडन मिश्र व शंकर के बीच शास्त्रार्थ चलता रहा, अंत में मंडन मिश्र ने अपनी पराजय स्वीकार कर शंकर को गुरु स्वीकार किया।
सनातन को स्थापित करने की इनकी यात्रा इतनी सरल भी नही थी, मौर्य वंश के संरक्षण के कारण राज धर्म बने हुए बौद्ध धर्म जिसकी भूमिका वैसे तो सनातन के विचार पर ही थी परन्तु सनातन के कई विचारों का विरोध करके ही बौद्ध भिक्षु जनता को बौद्ध धर्म मे आने के लिए प्रेरित करते थे, इसी विरोध के कारण कई बार शंकर का शास्त्रार्थ भी बौद्ध भिक्षुओं से हुआ, उनके दर्शन व अध्यात्म के ज्ञान को जानकर अनेक भिक्षुओ ने भी सनातन धर्म को श्रेष्ठ माना।
इसी भांति जैन संप्रदाय के भी कई विद्वानों से इनका शास्त्रार्थ हुआ, क्योंकि उस समय सनातन के विभाजन में कई पंथ अपने आपको श्रेष्ठ बताने व अपने विचार को परमात्मा का विचार बताने में लगे थे, इस कारण अनेक स्थानों पर शंकर को शास्त्रार्थ द्वारा सनातन की व्यापकता को साबित करना पड़ा।
अपने जीवन काल में शंकराचार्य दो बार भारत भृमण कर चुके थे, दक्षिण में रामेश्वरम से लेकर उत्तर में कश्मीर तक पूर्व में जगन्नाथ पुरी से लेकर पश्चिम में द्वारिका तक कई तीर्थ स्थलों के जीर्णोद्धार किए, सभी जगह लोगों को सनातन के विचारों, दर्शन, सत्य ज्ञान के लिए जागरूक किया, समाज में धर्म के प्रति फैले उदासीनता व नकारात्मक भाव को समाप्त करने में वे सफल भी रहे। 32 वर्ष की अल्पायु में भी शंकराचार्य समस्त भारत में सनातन की स्थापना के लिए सदैव स्मरणीय रहेंगे। उनके द्वारा प्रदत्त दर्शन, मठों की भूमिका व सनातन के प्रसार में समर्पित वेदपाठी शिष्यों के सामूहिक प्रयासों से ही आज तक सनातन धर्म इस्लाम व ईसाइयत के अनेकों प्रहार के बाद भी भारत में बहु संख्यक है। आज अवश्य धर्मान्तरण व धर्म के प्रति उदासीनता ने धर्म के रक्षक शंकराचार्य जी की भूमिका के निर्वहन के लिए अनेक सन्तों के समक्ष जो चुनोती प्रस्तुत की है, संत समाज उसे भली भांति समझकर धर्मान्तरण के इस चक्रव्यूह को अपने सनातन के इसी अद्वेत दर्शन द्वारा समाप्त करेगा।
मंगलेश सोनी
मनावर मध्यप्रदेश