लोकतंत्र को कटपुतली बनाने पर तुला भीडतंत्र

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स्वाधीनता के बाद देश को सुव्यवस्था देने की गरज से राजशाही के स्थान पर लोकशाही की स्थापना की गई। तात्कालिक परिस्थितियों में संविधान की रचना हुई। यह अलग बात है कि संविधान की रचना के दौरान किन लोगों को हाशिये पर रखने का षडयंत्र हुआ और कौन लोग, किस तरह प्रभावी हुए, परन्त आखिरकार देश ने स्वतंत्र गणराज्य के रूप में स्वयं के अस्तित्व को स्थापित कर ही लिया। लम्बे समय तक तंत्र के प्रभावी लोगों ने अपनी मर्जी के अनुसार गण पर नियम कानून थोपे। वोट की राजनीति चली। समय ने करवट बदली। सत्ता हस्तांतरित हुई। नये लोगों ने स्वयं को स्थायित्व प्रदान करने की गरज से कार्य करना शुरू कर दिया। फिर से तंत्र ने गण पर नियमों की बौछार शुरू कर दी। युग बदल चुका था, सो साइबर क्रांति के साथ ही षडयंत्र करने के आयाम बदल गये। भीडतंत्र ने जिस तेजी से अपना प्रभाव दिखाया, वह पहले संचार के अभाव में कभी देखने को नहीं मिला था। शाहीनबाग से लेकर किसान आंदोलन तक की रूपरेखा वातानुकूलित कमरों में तैयार कर संचार माध्यमों से पूर्व निर्धारित लोगों तक दायित्व विभाजन के साथ बिन रोकटोक के पहुंचाई जाने लगी। परिणामस्वरूप पलक झपकते ही सडकों पर तांडव की स्क्रिप्ट अभिनीत होने लगी। सत्ता ने जिस साइबर युग की दुहाई पर विकास की इबारत लिखने का दावा किया था, वही साइबर संसाधन उसके लिए अभिशाप बनने लगे। बात इन कथित जन आन्दोलनों तक ही सीमित नहीं रही तो भी ठीक थी। उससे भी चार हाथ आगे बढकर भीड के संवैधानिक स्वरूपों यानी संगठनों तक पहुंच गई। सरकारी सेवाओं से लेकर संगठित मजदूरों तक ने डंडों पर झंडे लगाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन शुरू कर दिया। इन सब भीडतंत्रों को वोट बैंक मानकर राजनैतिक दलों ने खुलकर संरक्षण देने शुरू कर दिया। यही आगे चलकर दलगत राजनीति के हथियार बनते चले गये। कल्याणकारी कार्यक्रमों को गति देने के नाम पर बनाये गये संगठनों का उपयोग प्रतिव्दन्दियों को धराशाही करने के लिए किया जाने लगा। कुछ दिन पहले ही सरकारी चिकित्सालयोंं में तैनात चिकित्सकों की मनमानियों के विरोध में प्रदर्शन किया गया। कम पढे-लिखे नेताओं के आपत्तिजनक बयानों पर कुछ चिकित्सकों ने भी अपने दहशत भरे अतीत की दुहाई पर धमकी भरे वक्तव्य ही नहीं दिये बल्कि खास कानूनों के तहत प्राथमिकी तक दर्ज करने के लिए अपने संगठनात्मक स्वरूप तक को प्रस्तुत कर दिया। सरकारी और गैर सरकारी लोगों में यह अंतर तो होता ही है। तंत्र से जुडे विभिन्न विभागों के लोगों में आपसी सहानुभूति होना स्वभाविक ही है। मरीजों का अपना कोई संगठन तो होता नहीं है और न ही चिकित्सकों के कर्तव्यों के निरीक्षण को कोई संवैधानिक अधिकार किसी नागरिक के पास होता है। ऐसे में जनसेवक के रूप में नियुक्त हुए अधिकारी और कर्मचारी केवल अपने वरिष्ठ जनसेवक के पद पर पदस्थ व्यक्ति को ही संतुष्ट करने के लिए बाध्य होते है। जनसेवक कहीं भी जन की सेवा करते तो दूर सम्मान देते भी नहीं दिखते। इस में कुछ अपवाद हो सकते है, जिन्हें अदृष्टिगत नहीं किया जा सकता। परन्तु यह भी सत्य है कि कहीं आम आदमी का उपयोग दलगत राजनीति के लिए चन्द लोग करते हैं तो कहीं आम आदमी के हितों के नाम पर सरकारी योजनाओं की कागजी उपलब्धियां ही सामने आतीं है। इन कागजी उपलब्धियों को रेखांकित करने का दायित्व भी तो जन के पास नहीं है। कुल मिलाकर आधुनिक युग में लोकतंत्र को कटपुतली बनाने पर तुला संगठित भीडतंत्र आने वाले समय में तब और घातक हो जायेगा, जब साइबर क्राइम को रोकने के संसाधनों की उपलब्धता, देश के पास न्यूनतम पायदान पर हो। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

डा. रवीन्द्र अरजरिया

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