अपने काव्य संग्रह ’वारांगना (व्यथांजलि)’ में डॉ. अर्पण जैन ’अविचल’ स्त्री के उस रूप की मार्मिक अंर्तव्यथा संसार के समक्ष रखना चाहता हैं,जिसे समाज हेय और घृणा की दृष्टि से देखता है।जिसके विषय में बात करने से भी समाज कतराता है। संभवतया स्त्री रचनाकार भी जिस विषय पर रचना करने से झिझकै और बचे । ऐसे विषय पर कविता लिखने का दुस्साहस कोई अविचल कवि ही कर सकता है । तभी तो कभी अविचिलित न होने वाले कवि ने ये दुस्साहस करने का हौंसला दिखाया है। कवि ने संग्रह का नाम तो वारागंना दिया परन्तु उसके साथ ही एक शब्द और प्रयुक्त किया ’व्यथांजलि’ अर्थात् वारागंना की व्यथा।वारांगना दो शब्दों से मिलकर बना है-वार +अंगना। वार नियत समय का द्योतक है एवं अंगना का अर्थ स्त्री होता है। वारांगना शब्द का अर्थ हुआ जो स्त्री तयशुदा समय तक साथ रहे। नारी मॉं,भगिनी,पुत्री,भार्या ,प्रेमिका,सखि और शिक्षिका आदि अनेक रूपों में आदर पाती है परन्तु वारांगना के रूप में यह समाज सदियों से उसे घृणा का पात्र ही समझता आ रहा है। कवि कहता है वारांगना भी तो एक स्त्री है उसका गुनाह केवल इतना है कि वह समाज के कई सफ़ेदपोश लोगों को पनाह देती है,या फिर यह कहें कि वो तन का मैला ढोती है।
कवि ने वारांगना की पीड़ा और मानसिकता के सच्चे चित्र उकेरे हैं।समाज के लोग वारांगना को निरन्तर ताने कसते रहते हैं।लेकिन फिर भी वह सब कुछ सहन करते हुए चुप रहने को विवश है। कवि ने वारांगना की मानसिक स्थिति का यर्थाथ चित्रण पाठकों के समक्ष रखा है-
पोर-पोर में भरी है उलझन /रग रग में बहते है तंज
बुत अहिल्या –सी बनी रही /यौवन पर सजते जिसके कंज-
कवि कहते हैं कि वारांगना भी अन्य नारी की भाँति ही है परन्तु परिस्थितियों ने उसे ऐसा बना दिया-
जाने कैसे मंजर आए / जाने कैसी ऋतु आई /
जाने कौन घड़ी में ये / आज ये वारांगना बन आई
वह प्रत्येक उस सम्मान एवं अधिकारों से वंचित है,जो एक सामान्य नारी को समाज देता आया है।समाज की उपेक्षा एवं हेय दृष्टि से देखे जाने के कारण वह हाशिये पर पड़ी है। वह ग्राहक को ही अपने लिए सबकुछ मानती है। वह स्वयं को परिस्थितियों के समक्ष विवश पाती है। अपना स्त्रीत्व हारते हुए भी उसे अपनी पीड़ा किसी से कहने का अधिकार नहीं है। अपने शारीरिक और मानसिक कष्ट वह किसी से भी नहीं बॉंट सकती।इस पीड़ा में भी उसके मन में आता है-जग की स्त्री शेष रहें बस / यही आरजू रोज़ कसकती
निरंतर सीमातीत पीड़ा सहते हुए वह स्वयं ही पीड़ा निवारक बन जाती है।–
सुबह स्वयं को ख़ुद ही गढ़ती /पीड़ा का अनुभव ख़ुद करती /
मलहम भी ख़ुद का बन जाती /घावों को अपने ख़ुद ही सहलाती
किसी ने कहा भी है दर्द का हद से गुजर जाना ही है उसका दवा हो जाना ।वारांगना से कोई भी संबंध नहीं रखना चाहता । कोई नहीं चाहता कि समाज में किसी को पता चले कि वारांगना का उनसे दूर का भी रिश्ता है । जो लोग प्रतिदिन उसके पास अपना स्वार्थ पूरा करने जाते हैं ,वे भी समाज के सामने उसे नहीं पहचानना चाहते-
कौन अपना कौन पराया/ कोई नहीं है उसका अपना /
सब आते हैं अपने को जीने/ प्रेम बना ही है उसका सपना
कवि कहता है जब वारांगना से किसी का संबंध ही नहीं है, उसे छोड़कर सभी अच्छे हैं तो ये अपना व्यवसाय सदियों से कैसे चला पा रही हैं- माना जग में सब के सब अच्छे / फिर क्यों अस्मत उसकी लूटते /
जब कोई न जाता गणिकालय / फिर कैसे बच्चे भी न शेष छूटते
वारांगना से सभी केवल अपने स्वार्थ का ही रिश्ते रखते हैं । कोई भी उससे मन का रिश्ता रखना नहीं चाहता, वह उनके लिए केवल वस्तुमात्र है।
जब जरूरत उसकी लगे भोगने / भोगन बाद सब भूल ही जावें
वारांगना को समाज से उठने वाले विरोध के कारण कई बार अपना व्यवसाय स्थल बदलने लिए विवश होना पड़ता है। यदि वह अपना व्यवसाय बदलना चाहे या अपना घर बसाना चाहे तो भी यह समाज उसे नहीं करने देता-
तंज जगत्त के तुम तक आते/ चुप रहकर प्रतिकार न करती /
हर दिन एक नया संघर्ष गढ़ती / फिर भी ख्बाबों की अर्थी सजाती
कवि कहता है कि तुम स्त्रीत्व को खोकर स्वयं को कैसे समझाती हो। अनेकों प्रश्न तुम समाज से पूछना चाहती हो कि मेरा क्या दोष है? तब समाज कोई उत्तर नहीं दे पाता ।लेकिन तुम पर ही आक्षेप लगाए जाते हैं। शोषण और अन्याय भी तुम झेलती हो ,समाज का प्रत्येक वार केवल तुमपर ही तुम्हें दोषी मानकर किया जाता है-
हर घड़ी घाव सह कर भी / दोषी ज़मीर तुम्हारा रहा
वारांगना पूछती है-पूछती जगत्त से मैं/ मैं अकेली क्यों सहूं /
दोष सब का है तो फिर / मैं अभागन क्यों रहूं
लोग तुम्हारे पास प्रेमी बनकर आते हैं ,पर कोई तुम्हारा प्रेमी बना नहीं रहना चाहता ,वह केवल समय बिताने और दिल बहलाने के लिए तुम्हें वस्तुमात्र समझते हैं।तुम्हारा पूरा जीवन इसी प्रकार बीत जाता है।
मीत की अनहद तलाश में / मनमीत कोई न प्यारा रहा /
हर घड़ी परिवेश भी बदले /कोई एक भी न तुम्हारा रहा
वारांगना को स्त्री होते हुए भी कोई स्त्री मानने के लिए तैयार नहीं है। समाज उसे नगरवधू, नगरश्री और गणिका के रूप में ही देखना चाहता है।
कौन कहे तुम स्त्री स्वरूपा / नगरवधु रूप ही सबको प्यारा
वारांगना का मन पीड़ा सह-सह कर इसे सहन करने का अभ्यस्त हो गया है। वह इन सब में विवशतावश लिप्त तो होती है परन्तु निर्लिप्त रहती है। उसमें संवेदना मर चुकी है,अब वह यंत्रवत् कार्य करती है-
प्रवाह में अथाह है /अथाह मन की वेदना /
तन को सबने भोग लिया / मृत है अब संवेदना
वारांगना को केवल भोग की वस्तु ही समझा जाता रहा है,उसे केवल अपना स्त्रीत्व लुटाकर ही ग्राहकों को सेवा देनी है। आसक्ति को छोड़कर नियत कर्म करना ही योग है।इसी का नाम कर्म योग है।जल में कमल के समान साधक एहिक विषयों का सेवन करते हुए भी निर्लिप्त रह सकता है।
मन तो अब रहा नहीं / तन भी केवल भोग है /
भोगन ही रही सदा मैं /जीवन केवल योग है
कवि कहता है कोई भी स्त्री वारांगना नहीं बनना चाहती ,किसी को भूख, किसी को कूड़े में फेंक दिया जाना,किसी को बेच दिया जाना और किसी को लोग यूँ ही इस दलदल में धकेल लाते हैं।
कोई भूखा आ जाता / कोई बेमतलब लाया जाता /
कोई छोड़ दी जाती कूड़े में / कोई इसको बेच जाता
वारांगना समाज के द्वारा दुत्कारे जाने पर निरन्तर दुःखी रहती है,यह दुःख धीरे-धीरे उसे कुंठाग्रस्त बना देता है।–
थोड़ा-थोड़ा रोज ही कुरेदती /अपने मन के घाव और छाले /
कितना रोज वो दर्द को सहती /कुंठा में खुद को कब तक मारे
वारांगना किसी के साथ अपना घर नहीं बसाना चाहती, वह तो केवल प्रेमपथिक बनना चाहती है। कोई उसे भी प्रेम करना चाहे।
चाह नहीं उसकी कोई ऐसी / जिसमें दुनिया की रीति बसती /
चाह केवल प्रेम पथिक बनना /इसलिए वो चुपचाप ही रहती
कवि कहता है कि वारांगना का सारा जीवन रोते हुए ही व्यतीत हो जाता है। सदियों से उसके साथ यही होता आया है।उसके यक्ष प्रश्नों का उत्तर कोई नहीं दे सकता है।
कवि ने भावों को व्यक्त करने के लिए लोकशब्दों जैसे गादी,आखर और समरथ आदि शब्दों का प्रयोग किया है।
संस्कृत शब्दों प्रेमपथिक,पयोधि,तिमिरहर और सूसूत्र आदि शब्दों का प्रयोग किया है।
भावों की अभिव्यक्ति के लिए जहाँ-तहाँ ऊर्दू शब्दों आरज़ू,इश्क , साहिल और ख़तूत आदि का भी प्रयोग किया है।
हिंदू मिथकों जैसे बुत अहिल्या,हारिल,मनमोहन ,बसंतसेना और यक्ष प्रश्न आदि का प्रयोग करके कवि ने अपने भावों को अभिव्यकत करने में सफलता पाई है। पाठकों तक वारांगना की पीड़ा पहुँचाने में उन्हें सफलता मिली है। रचनाकार ने पुरूष होते हुए भी एक स्त्री के मन में निरन्तर चलने वाले दर्द को सबके समक्ष रख दिया है,एक संवेदनशील और सर्वत्र सम्भाव रखने वाले व्यक्ति द्वारा ही यह संभव हो सकता है।
#डॉ संध्या सिलावट, इंदौर