हां मैं तजुर्बा हूं, हां मैं तजुर्बा हुं,
मैं मिल जाता हूं अक्सर गांव की चौपाल में हुक्का गुड़गुड़ाते हुए,
और मिल जाता हूं गांव के घर आंगन में चरखा कातते हुए ,,,
हां मैं तजुर्बा हूं ,हां मैं तजुर्बा हूं,
कभी मिल जाता हूं चारपाई पर बैठा अखबार पढ़ते हुए,
या कभी गली के नुक्कड़ पर ताश खेलते हुए ,
हां मैं तजुर्बा हूं ,हां मैं तजुर्बा हुं,
अक्सर कहीं भी दिख जाता हूं,
मेरी पहचान मेरे सफेद बाल मेरे चेहरे पर पड़ी झुर्रियां हैं,,,
मेरे कंपकमपाते हाथ, मेरे झुके कंधे, मेरी चमड़ी पर पड़ी सिलवटें हैं,,,
हां मैं तजुर्बा हूं , हां मैं तजुर्बा हुं,
नई पीढ़ी के लोग मेरी कदर कहां करते हैं,, बल्कि मेरे अनुभव पर ही हंसते हैं,,,
उन्हें लगता है मुझे कुछ नहीं आता है,
क्योंकि उनका चाल चलन और शोर शराबा मुझको नहीं भाता है ,
नई पीढ़ी स्वयं पर इतराती है,,,
दुख में चिल्लाती है ,गिड़गिड़ाती है,
मगर घर में बैठे तजुर्बे के पास नहीं आती है, और शायद इसीलिए दुख उठाती है ,
घर में रहकर भी घर से जुदा हूं,,
हां मैं तजुर्बा हूं, हां मैं तजुर्बा हूं।
#सचिन राणा ” हीरो ”
हरिद्वार(उत्तराखंड)