न जाने कितनों को,
अपने ही लूट लिया।
साथ चलकर अपनो का,
गला इन्होंने घोट दिया।
ऊपर से अपने बने रहे,
और हमदर्दी दिखाते रहे।
मिला जैसे ही मौका तो,
खंजर पीठ में भौक दिया।।
ये दुनियाँ बहुत जालिम है,
यहां कोई किसी का नही।
इंतजार करते है मौके का,
जो मिलते भूना लेते है।
और भूल जाते है अपने
सारे रिश्ते नातो को।।
और अपना ही हित
ऐसे लोग देखते है।।
आजकल इंसान ही इंसान पर,
विश्वास नही करता।
क्योंकि उसे डर,
लगता है अपनो से।
की कही उससे विश्वासघात,
मिलने वाले न कर दे।
इसलिए अपनापन का अब,
अभाव होता जा रहा है।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)