एक गांव की लड़की
पन्नों पर खिले अक्षरों की रूह
तथा गांव की आबो- हवा की रूमानियत
बख़ूबी पढ़ सकती है।
वह निर्झर, उपवन और किसलय के साथ
अड़सा, चिरैता और भटकोइया की
उपयोगिता भी समझती है।
वह जानती है गोबर से
पतले और आलनदार उपले बनाना
जो चूल्हे के समीप पहुंचकर धधकते हुए
पूरे घर को रोटी की सोंधी खुशबू से भर सके।
वह विद्वानों के ज्ञानवर्धक वक्तव्य के साथ
जानवरों के आंखों की भाषा भी पढ़ लेती है
कि उन्हें पानी चाहिए, चारा या थोड़ी दुलार।
वह जानती है,
किस किताब की कितनी उत्कृष्टता है
उसे पता है,
किस झाड़ू से कितनी देर में
वह कितना साफ़ दुवार बटोर सकती है।
परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नोत्तर को भी
वह बख़ूबी तैयार करती है
और आषाढ़- सावन में रोपे जाने वाले
धान के खेत को भी।
वह कलम और कुदाल का
गुरुत्व भी समझती है
वह सनई के फूल, जोन्हरी के दूधिया दाने और अंकपत्र का
प्रभुत्व भी परखती है।
उसे पता होता है,
किस गेहूं से कितनी मुलायम,
चमकदार और सुपाच्य रोटी बन सकती है
वह जानती है,
किताबों के आत्मीय संबंध से ही
वह एक सफल विद्यार्थी बन सकती है।
वह समझती है कविता का भाव,
गद्य का सामाजिक- राजनीतिक संबंध,
वह जानती है भात की मिठास
और दाल की सोंधी सुगंध।
वह समझ लेती है बच्चों के रुदन
और उनकी खिलखिलाहट का राज़
उसे पता है,
किताबों के बाहर की परिधि
और अनेक रंगों में लिपटा यह समाज।
वह जानती है परीक्षाहाल के
समय और प्रश्नों के बीच की कश्मकश,
वह महसूस करती है
खेत में बिछी पकी फसल के साथ
काले बादलों के रुख के कारण
पिता का आत्मीय- दर्द।
वह कृषानु और कृषाण का भाव भी समझती है
वह जई तथा जौ का अर्थ भी परखती है।
एक गांव की लड़की
घर की चौखट, खेतों की मेड़ से लेकर
विश्वविद्यालय के प्रांगण तक
सभी तहखानों की ज़ीनत का इल्म रखती है।
किसमत्ती चौरसिया ‘स्नेहा’
प्रयागराज।