कब तक यूँ श्वेत कपोतों की बिरियानी उन्हें खिलाओगे,
कब तक घाटी के असुरों को वीरों का रक्त पिलाओगे।
कब तक नापाक पड़ोसी की साजिश में फ़ंसते जाओगे,
कब तक समझौतों को कर शहादतों पर हँसते जाओगे।
अलगाववाद,आतंकवाद को अलग-अलग मत तौलो जी,
वो भी तो आतंकी हैं अब छाती चढ़ हमला बोलो जी।
कोई भी हल जब न निकले गाँधी के दूजे गालों से,
तब प्रत्युत्तर देना पड़ता है बंदूकों की नालों से।
घाटी के पत्थरबाज न आते बाज कभी करतूतों से,
क्या अब भी है उम्मीद चैन की,इन बाबर के पूतों से।
घाटी का दर्श बढ़ा ही आदमखोर दिखायी देता है,
अब्दुल्ला की नजरों में भी अब चोर दिखाई देता है।
किन समझौतों से हाथ बँधे,उनको तोड़ो आजाद करो,
कर चुके बहुत हम अनुनय विनय,मगर अब सिंह का नाद करो।
नासूर बने जब ज़ख्म सभी,बहता हो शोणित छालों से,
तब प्रत्युत्तर देना पड़ता है बंदूकों की नालों से।
फ़िर क्यों चल पड़े कारवां ले तुम अपना धर्म निभाने को,
क्या भूल चुके ये हैं आतुर तुम पर पत्थर बरसाने को।
हो जाने दो इक बार सूपड़ा साफ इन सभी सपोलों का,
तो रंग उतर जाएगा इन सबके जेहादी चोलों का।
जब हर फौजी दस-दस सर्पों का गला पकड़कर घोंटेगा,
कर लो यकीन फ़िर काश्मीर में चैन शान्ति सुख लौटेगा।
जब शौर्य पुंज घिर जाता हो कायरता भरे सवालों से,
तब प्रत्युत्तर देना पड़ता है बंदूकों की नालों से।
(जब सियासी लोगों द्वारा सेनाध्यक्ष के बयान को हताशा में दिया हुआ बयान कह दिया जाता है ,तब कहता हूँ उनकी तरफ़ से कि, हाँ हम हताश हैं जिसका कारण सुनिए -)
हम हैं हताश क्यों हाथ हमारे बाँधे आज़ सियासत ने,
जाने कितनों को अभयदान दे दिया है सुस्त अदालत ने।
हम संविधान के अनुच्छेद में उलझे हैं कई सालों से,
हम ऊब चुके आतंकवाद की नेता रुपी ढालों से।
सरहद से लेकर दिल्ली तक है फैल गया विष खादी में,
बिच्छुअों को पाल रहे आमादा हैं माँ की बर्बादी में।
बलिदान न हो बेजा वीरों का,रोष उठा मतवालों से,
अब प्रत्युत्तर हमको देना है बंदूकों की नालों से।
#देवेन्द्र प्रताप सिंह ‘आग’
परिचय : युवा कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह ‘आग’ ग्राम जहानाबाद(जिला-इटावा)उत्तर प्रदेश में रहते हैं।
बहुत ही सुंदर रचना..
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