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(विनोद खन्ना को समर्पित)
अस्सी के दशक में होश संभालने वाली पीढ़ी के लिए उन्हें स्वीकार करना सचमुच मुश्किल था,जिसका नाम था विनोद खन्ना..क्योंकि तब जवान हो रही पीढ़ी के मन में अमिताभ बच्चन `सुपरमैन` की तरह रच-बस चुके थे। अमिताभ यानी,जिसके लिए असंभव कुछ भी नहीं। जो दस-दस से अकेले लड़ सकता है…जूते पॉलिश करते हुए `मुकद्दर का सिकंदर` बन सकता है। अमिताभ की फिल्मों में तब तमाम कलाकार हुआ तो करते थे,लेकिन सबके-सब भर्ती की तरह। उनकी भूमिका की पटकथा कुछ यूं तैयार की जाती थी,जिससे अमिताभ को मजबूती से उभरने का मौका मिल सके,लेकिन विनोद खन्ना व्यक्तित्व से लेकर अभिनय तक में अमिताभ से बराबर टक्कर लेते नजर आते थे। संजीदा और आकर्षक व्यक्तित्व तो उनका था ही,कुछ फिल्मों में वो अमिताभ पर भी भारी पड़ते नजर आए थे। इसमें `अमर-अकबर-एंथोनी` से लेकर `खून पसीना` तक शामिल है। किशोरवय में देखी गई फिल्म `खून पसीना` में विनोद खन्ना का `टाईगर` का किरदार कई दिन तक मेरे दिल-दिमाग में छाया रहा था। `अमर-अकबर-एंथोनी` में विनोद खन्ना का कड़क पुलिस इंस्पेक्टर का किरदार भी काफी दमदार रहा। `मुकद्दर का सिकंदर` के अंत में सिकंदर बने अमिताभ बच्चन की मौत का दृश्य जबरदस्त रहा। इसके बावजूद विनोद खन्ना भी उनके समक्ष कहीं कमतर नजर नहीं आए। इससे पहले विनोद खन्ना की फिल्म देखी थी `प्रेम कहानी`, जो ज्यादा चर्चित तो नहीं हो पाई थी,लेकिन इसमें विनोद खन्ना ने गजब का अभिनय किया था। अमिताभ बच्चन के मोहपाश में बंधी तब की पीढ़ी के लिए विनोद खन्ना सचमुच एक ऐसा व्यक्तित्व था ,जिसे नजरअंदाज करना न सिर्फ उनके चाहने वालों,बल्कि खुद अमिताभ के लिए भी मुश्किल था। ८० के दशक के शुरुआती वर्षों तक अभिनय के इन दो धुरंधरों की टक्कर जारी रही। अक्टूबर १९८४ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अमिताभ बच्चन राजनीति में चले गए और इलाहाबाद से सांसद निर्वाचित होकर संसद भी पहुंच गए। तब विनोद खन्ना के लिए सुपर स्टार के रुप में उभरना आसान था। हालांकि,फिल्म से दूरी के बावजूद अमिताभ बच्चन के प्रशंसकों के लिए किसी अन्य अभिनेता को सुपर स्टार के तौर पर स्वीकार करना मुश्किल था। तभी विनोद खन्ना ने भी फिल्मों की चकाचौंध भरी दुनिया से नाता तोड़कर अध्यात्म की ओर रुझान दिखाकर सभी को चौंका दिया। पांच साल बाद ही विनोद खन्ना की `इंसाफ`,`सत्यमेव जयते` और `दयावान` जैसी सफल फिल्मों से वापसी से लगा कि,वे फिल्मी दुनिया में अपना पुराना मुकाम शायद जल्द हासिल कर लें। हालांकि,बाद की उनकी फिल्में ज्यादा चर्चित नहीं हो पाई। १९९० में श्रीदेवी के साथ आई फिल्म `चांदनी` शायद उनके जीवन की आखिरी सुपर हिट फिल्म रही। फिल्म से अध्यात्म और फिर राजनीति में गए विनोद खन्ना बेशक अब हमारे बीच नहीं हों,लेकिन उनका आकर्षक संजीदा व्यक्तित्व,फिल्मों में उनकी दबंगई भरी भूमिका को भुला पाना शायद लंबे समय तक संभव न हो। दरअसल बॉलीवुड में धर्मेन्द्र ने `ही-मैन` व `मर्द` वाली अपनी जो छवि बनाई थी,विनोद खन्ना उसके अगले ध्वजवाहक बने। इसे उनके बाद कुछ हद तक जैकी श्राफ और संजय दत्त ने भी आगे बढ़ाया। बचपन में उनकी किसी फिल्म का एक संवाद-`तुम जिस स्कूल में पढ़ते हो,हम उसके प्रिसिंपल रह चुके हैं…`काफी चर्चित हुआ था। उनके भारी भरकम व्यक्तित्व पर यह संवाद खूब फबता था। लगता है इस संवाद से वे अपने समकालीन के साथ ही नवोदित अभिनेताओं को भी चुनौती दे रहे हों।
#तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं
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Sat Apr 29 , 2017
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