लिखता इमारतों के आसमानी
गुरूर की इबारत
लुटा दी, जिसके लिए देहातों ने अपनी
अल्हड़ यौवन की पूंजी
ले सतरंगी सपनों की झिलमिल
जो आए थे माया के नगरों में
बुझ गई, उम्मीदों की मशालें तमाम
बचे अंगारों की राख,
करते नीलाम, गुलामी के बाजारों में
तड़पते, बिलखते, भूखे बचपन को
ढोती, दुबकाती बेबस माता की छाती
लानत, धिक्कार, तिरस्कार और
देता गाली पर गाली
चल निकल,
कह – दुत्कारता, गुर्राता बेल्टधारी
सूखे होठ, सूखे आंसू,
सूखी छाती, सूखा बदन
टूटा हलक से पेट का नाता,
पछताता जिस्म, जिस्म को खाता
विषकन्या सी लुभाती, भरमाती
चमकीली सड़कों की मरीचिकाएं
फिर जख्मों पर मरहम लगाने के बहाने
गोद में सुलाती
मौका पाते ही डस जाती
नाकाम हुकूमत की नाकाम सियासत
चलती चाल पर चाल
रेंगती, सड़कों पर ममता,
होकर निढाल, बेहाल
दाने- दाने को मुहाल।
अजय कुमार
ज.न.वि. हावेरी
परिचय-
अजय कुमार,
हिंदी अध्यापक,
नवोदय विद्यालय समिति,
हावेरी, कर्नाटक
मूल निवास – गांव- छावला, नई दिल्ली – 110071