स्वीकार

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 *प* ति से अलग हुये संजना को आज पुरे आठ वर्ष हो चूके थे। उसका हठिला स्वभिव आज भी उस पर हावी था। वालेनटाइन के दिन नुक्कड़ पर चाट खाते हुये देव और संजना की आंखे मिल गई। संजना की आंखों में आज भी पछतावा नहीं था। विवेक पापा से मिलना चिहता था। किन्तु संजना का भय इतना था कि आठ वर्षीय विवेक सड़क के उस पार खड़े अपने पिता से मिलने न जा सका। मायके में भी संजना को प्यार से समझाने वाले कुछ लोग थे किन्तु परिजनों की बातों को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया। वह अकेले दम पर अपना और अपने बेटे का पालन-पोषण दंभ भरा करती। उसके इर्द-गिर्द लोग कम ही फटकते। उसके तेज-तर्रार और मुंह फट व्यवहार ने बहुतों को कष्ट दिया था। सुलोचना कभी-कभार संजना से मिलने दुकान पर आया करती। दोनों स्कूल समय की सहेलियां थी। सुलोचना की शादी हो चूकी थी। किन्तु दुर्भाग्यवश उसके पति का असमाजिक निधन हो गया। ससुराल से असंतुष्ट सुलोचना मायके में आकर रहने लगी। आत्मसम्मान के लिए वह स्थानीय बैग फैक्ट्री में काम करती। संजना किराये की दुकान पर साड़ी पर पीको फाॅल लगाने का कार्य करती थी। विवेक अब स्कूल जाने लगा था। संजना आज खुद को रोक न सकी। पानी पुरी के ठेले से लौटते हुये संजना पुरानी यादों में चली गयी। कितना प्यार था उन दोनों के बीच। संजना और देव एक ही प्लेट में पानी पुरी खाया करते थे। घंटों तक एक-दुसरे की बाहें थामे बातें किया करते। वालेनटाइन डे पर ही देव ने संजना को विवाह के लिये प्रस्ताव दिया था। पिक्चर जाना, पार्क में घुमना, साथ में आइस्क्रीम खाना इन दोनों की आये दिन की दिनचर्या हो चूकी थी। संजना ने विवाह की सहमती दे दी थी। दोनों का विवाह परिवार की असहमति के बावजूद हुआ। दरअसल देव के परिजन संजना के अड़ियल व्यवहार को जान चूके थे। उन्होंने देव को समझाया किन्तु वह नहीं माना। संजना भी अपने परिजन के लिये समझाइश का विषय थी। संजना के माता-पिता को यह भय था कि उनकी बेटी ससुराल में निभेगी अथवा नहीं? देव और संजना का विवाह जिज्ञासा का विषय था क्योंकि अनुभवी समाजजनों ने घोषणा कर थी की संजना और देव का विवाह अधिक समय तक नहीं टिकेगा। इसके पिछे तर्क था कि देव एक सीधा- सरल और सज्जन स्वभाव का धनी युवक था। दूसरी ओर संजना आधुनिक युग में जन्मी नई क्रांतिकारी विचारों वाली युवती थी। उसे अपनी स्वतंत्रता अत्यंत प्रिय थी। संसार में किसी के लिए भी वह अपनी स्वतंत्रता के लिये समझौता नहीं कर सकती थी। उसे जो चाहिये, उसे प्राप्त करने का हर संभव प्रयास करने के लालायित रहती। भले ही परिस्थिति उसके अनुसार हो अथवा न हो। जिद्दी इतनी की उसके हठ के आगे बच्चें भी अपना हठ छोड़ दे। बात अगर सौन्दर्य प्रसाधन की हो तो यह उसके प्राथमिक उपयोग में आने वाली वस्तु थी। जिसे वह अपने घर के जरूरी व्यय रोककर पुरा करती। इन्हीं छोटी-छोटी बातों पर देव ने आपत्ति ली। जिसका प्रत्युत्तर उसे भारी विरोध के साथ मिला। संजना ने देव को उसके निजी कार्यों में दखल न देने की चेतावनी तक दे डाली। इतना ही नहीं संचना देव के परिजनों के साथ भी शुष्क व्यवहार करती। कुछ ही समय में देव जान चूका था कि अब उसकी गृहस्थी एक-साथ रहकर नहीं चल सकती। किन्तु विवेक के जन्म ने दोनों का रिश्ता और आपसी व्यवहार सुधारने का एक अवसर अवश्य दिया। विवेक अब संजना की गोद में था। वह विवेक पर ममता लुटाती। यह देखकर देव आंशिक प्रसन्न था। उसे पुनः आस बंध आई। इसके बाद वह घड़ी आई जब संजना ने देव से अलग रहने का निर्णय ले लिया। ससुराल द्वारा प्रतिदिन की पाबंदियों को ग्रहण करने में संजना सहज नहीं थी। छः माह के विवेक को गोद में लेकर संजना, देव से अलग हो गयी।

“ममा” विवेक ने संजना को झंझोड़ा।
“हां बेटा! क्या बात है?” संजना ने विवेक के सिर पर हाथ रखा।
अपनी मां के मुख से प्रिय वचन विवेक ने बहुत दिनों के बाद सुने था। घर गृहस्थी की परेशानी से चिढ़चिढ़े पन की ओढ़नी ओढ़ चूकी संजना अपने हाथों से विवेक के जूते खोल रही थी। विवेक पर संजना प्यार की वर्षा कर रही थी। विवेक प्रसन्नता से खिल उठा। उसकी प्रिय मां उसे पुनः मिल चूकी थी। स्कूल यूनिफार्म उतारकर घरेलू वस्त्र पहने विवेक घर से बाहर खेलने चला गया। ड्रेसिंग टेबल पर स्वयं को घूरती संजना एक बार फिर विचारों में भंवर में डूब गयी।
‘आखीर सभी लोग मुझसे इतना अप्रसन्न क्यों है। मम्मी-पापा! मैं उनकी संतान हूं। वे लोग मुझसे अप्रसन्न क्यों रहते है? क्या मैंने आज तक कभी कोई अच्छा काम नहीं किया? जिसके लिये वो मुझ पर गर्व करे? खुशी का एक पल उन्हें देने में क्यो मैं अब तक सफल नहीं हो सकी? और देव! देव, से मैंने कितना प्रेम किया। उसे अपना सबकुछ स्वीकार किया। वह भी मुझे ही गल़त ठहराता आया है। उसके माम-डैड भी मुझसे नाराज रहते है। एक सुलोचना ही है जो मेरा दर्द बांटने आ जाती है। लेकिन आजकल वह भी मेरी ही कमीयां निकालती है।’
संजना शांत होकर अपने पुर्व व्यवहार पर नजर दौड़ा रही थी।
‘शायद मैं कहीं पर तो गलत हूं। वर्ना इतने सारे लोग मेरे विरूद्ध न होते। मां-बाबूजी ने मुझे वो सबकुछ दिया, जिसकी मैंने मांग की। बदले में मैंने क्या दिया? मैं हर समय अपनी मनमानी ही करती आई। छोटी-छोटी बातों को बड़ा विषय बनाने में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी। देव ने मुझे प्रसन्नचित्त देखने के लिये क्या कुछ नहीं किया। कमर तोड़ मेहनत की। ऑफिस में ओवरटाइम किया। ताकी मेरे सौन्दर्य प्रसाधन में कोई कमी न आये। ऑफिस के बाद घर के कामकाज में हाथ बंटया। मेरे हर नखरे उठाये। मुझसे इतना भला-बुरा और जली-कटी सुनने के बाद भी मौन धारण करने वाला देव अब भी मुझे स्वीकार करने को तैयार है। और वह नन्हां विवेक! उसका क्या दोष? वह मेरे डर के मारे बाहर खेलने तक नहीं जाता। ओहहह! मैं कितनी बुरी हूं।’
संजना की आंखे भीग चूकी थी। आत्ममंथन में उसने वह खोज निकाला। जिसके लिए वह मारी-मारी फिर रही थी। महिला सशक्तीकरण की बातें सुन-सुनकर बड़ी हुई संजना यथास्थिति देखकर आश्चर्यचकित थी। आखिर उसने अपनी बात ही तो रखी थी। फिर लोगों ने उसे अस्वीकार क्यों कर दिया। महिलाओं के हित और अधिकार के लिये बातें करने लोग यथार्थ में उसे समानता क्यों नहीं दे पाते। संजना के कृत्य यदि पुरूष करता तब उसे क्या इतना भला बुरा कहा जाता, जितना की संजना को कहा जा रहा है? ‘हां अवश्य!’ संजना के मन से आवाज आई।
‘स्त्री हो या पुरूष। समाज में हर किसी के लिए मर्यादा की सीमा रेखा खींची गई है। यहां अधिकारों के प्रति सजग रहने वाले अपनी उत्तरदायित्व के प्रति भी जिम्मेदार होते है।’
संजना समस्या की जड़ तक पहूंच चूकी थी। उसने गालों तक आ पहूंचे अश्रुओं को हथों से पोंछा।
‘किन्तु इन सबका हल क्या है?’ विचारों के अंतिम छोर तक संजना पहूंच चूकी थी।
‘एक बात तो निश्चित है। जब तक मैं न चाहूं ये समस्या कभी हल नहीं हो सकती। मुझे स्वयं के अंदर झांकना होगा। भविष्य सुखमय और आनंदमयी बनाना है तो मुझे स्वयं को स्वीकारना होगा।’
वह अंदरूनी उत्साह अनुभव कर रही थी। उसने स्वयं को स्वीकार कर लिया था। अपने पुर्व कृत्यों पर पछतावा करने के बजाये भविष्य का समय सुव्यवस्थित करने का दृढ़ निश्चय किया। संजना ने मुंह धोया। उसने देव को फोन मिलाया। देव से मिलकर आज वह सबकुछ ठीक कर देगी। उत्साह से भरी संजना देव की पसंद की सांडी पहने अंदर कक्ष में चली गई।

समाप्त

#जितेंद्र शिवहरे

परिचय- 
सहायक अध्यापक 
शा प्रा वि सुरतिपुरा चोरल, महू,
इन्दौर, मध्यप्रदेश

पांडुलिपि – कहानियां, उपन्यास, कविताएं

-मंचीय कवि
-आकाशवाणी इंदौर में दो काव्यपाठ
-दूरदर्शन भोपाल काव्यान्जली में काव्यपाठ
-शहर की काव्यगोष्ठी में सक्रिय भागीदारी

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।