मार्क्सवाद के प्रति प्रतिबद्धता में भयानक गिरावट

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mohsin
वामपंथ को आज भारत में शक की निगाहों से देखते हुए इसको सीधा-सीधा उग्रवाद से संबद्ध करते हुए उपद्रवी,बाग़ी और आतंकवादी प्रवृत्तियों के निकट लाकर देखा जा रहा है,लेकिन इस तरह से देखने के दो स्पष्ट कारण दिखाई देते हैं। पहला यह कि परंपरावादी प्रारम्भ से वामपंथ के विरोध में हैं ही और उनकी दृष्टि में वामपंथ एक गलत मार्ग होने के साथ सांस्कृतिक-क्षरण का कारक भी है। वे अपनी दृष्टि को इस पंथ के सापेक्ष में स्वीकार्यता के साथ विकसित नहीं कर पाए और अपने सामंतकालीन निरंकुश दुराग्रहों से मुक्त न हो पाए। वे जातिगत, भाषाई,संप्रदायगत और भेदात्मक भावना का अधिक विकास करते हुए आपसी समन्वय से दूर होते गए। दूसरा यह है कि,वामपंथियों के पास  केवल वामपंथ है,न तो उनके पास कोई कारगर समुचित योजना है,न योजना के साथ कोई दृढ़ नेतृत्व। न अनुशासन, कोई विशेष संतुलित चेतना। केवल विरोध के लिए विरोध करना वामपंथ को सही दिशा में न ले जाकर इसे बदनाम करने के साथ इसके प्रति जनता में रोष उत्पन्न कर रहा है। यहाँ वामपंथ को समझना ज़रूरी हो जाता है कि,वास्तव में वामपंथ है क्या?
वामपंथ होने का सीधा अर्थ राजनीति का वह पक्ष जो पारंपरिक सत्ता के विपक्ष में अपने समता के तौर’तरीके, विचारधारा,मूल्य, सिद्धांत,मानदंड और अपनी बात रखता है।वामपंथी राजनीति, राजनीति में उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं, जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक बराबारी लाना चाहते हैं। इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए सहानुभूति जतलाई जाती है जो किसी भी कारण से अन्य लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या शक्तिहीन हो गए हों। राजनीति के सन्दर्भ में ‘बायें’ और ‘दायें’ शब्दों का प्रयोग फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान शुरू हुआ। फ़्रांस में क्रान्ति से पूर्व की एस्तात नामक संसद में सम्राट को हटाकर गणतंत्र लाना चाहने वाले और धर्मनिरपेक्षता चाहने वाले अक्सर बायें तरफ़ बैठते थे। आधुनिक काल में समाजवाद और साम्यवाद से सम्बंधित विचारधाराओं को बाहर  राजनीति में डाला जाता है। भारत में मार्क्सवाद के पदार्पण के साथ वामपंथ का प्रारंभ हुआ स्वाभाविक है,भारत की राजनीति में वामपंथ अपनी विचारधारा,मूल्य, मानदंड और सिद्धांत लेकर आया,लेकिन वह अब तक सफल न हो पाया। जिस तरह से इस पंथ को अनुशासन, नेतृत्व,चेतना और आस्था की ज़रूरत थ,वह इतनी मात्रा में न मिल पाई जितनी मिलनी चाहिए थी। वामपंथ भारत जैसे बहुभाषी,बहुसंप्रदाय, बहुधर्म,बहुसंस्कृति वाले राष्ट्र में फल-फूल न सका क्योंकि वामपंथ को समझने के लिए साक्षर होने के साथ पारंपरिक आस्थाओं,लोक विश्वासों, धार्मिक रूढ़ियों-ढकोसलों को पहले जड़ से उखाड़ना होगा, फिर इसके लिए इसे गहरे से जानने और समझने के लिए विशेष प्रयत्न करने होंगे। भारत में अधिकांश जनता की अवस्था ऐसी है जो साक्षर भी नहीं तथा जो साक्षर हैं वे धर्म, संप्रदाय और रूढ़ियों में इतने जकड़े हुए हैं,उनसे वे बाहर भी आना नहीं चाहते। अपनी दृष्टि को वैज्ञानिक चश्मा भी पहनाना नहीं चाहते। भारतीय राजनीति में मार्क्सवाद आज बहुत हद तक सिमटकर रह गया है, कोई विशेष स्थापना और ख्याति भारत में स्थापित न कर पाया या कहें कि लोक में मार्क्सवाद की पकड़ न बन पाई। जिन्होंने इसे अपनाया,वे कहीं-न-कहीं प्रबुद्ध वर्ग की पकड़ में रहा,उनकी चेतना उससे मेल खाई और वह संस्थाओं, वैचारिक समूहों में स्थापित होकर एकांगिता का शिकार हो गया। आज यह भी जानना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि मार्क्सवाद का भारतीय राजनीति में क्या स्थान है और ये कहाँ तक सफल हो सका है?
मार्क्सवाद वैश्विक स्तर पर फैलने के साथ भारत में प्रवेश कर वर्तमान तक पूर्णतः स्थापित न हो पाया। यद्यपि मार्क्सवाद समाज में समत्व के विकास के साथ मानवीय चिंता का ऐसा दर्शन है, जिसने समस्त विश्व को समानाधिकार की भावना,सामुदायिक विकास,पूँजीवाद के विरोध के साथ पूंजी के उचित वितरण प्रति व्यक्ति के विकास के साथ मानवीय इतिहास की नवीन व्याख्या की तथा पिछले समस्त दर्शनों से अधिक तर्कयुक्त रूप में उभरकर समक्ष आया। भारत में मार्क्सवाद को समझना और समझाना तथा इसकी सही सामाजिक व्याख्या करना आज बहुत आवश्यक है, चाहे पाठ्यक्रम में पुस्तकों के माध्यम से हो या अभियान के माध्यम से हो या कला की अन्य शाखाओं माध्यम से हो या संस्कार के माध्यम से। आज केवल मार्क्सवाद ही ऐसा दर्शन है,जो समाज की उन्नत्ति,प्रगति और न्यायिक व्यवस्था का सशक्त विधायक है। भारत की मार्क्सवादी पार्टी के नेताओं ने मार्क्सवाद का ऐसा कुछ ख़ास प्रचार और प्रसार करने का प्रयत्न ही नहीं किया कि,भारत में मार्क्सवादी पार्टी के माध्यम से जनअलख जगाया जाए और हर व्यक्ति को उसके अधिकारों,कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया जाए। वास्तव में मार्क्सवादी पार्टी भारत में मार्क्सवाद को सही दिशा देने में असफल हो गई हैं, उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों का बीज जनता के बीच जाकर संघर्ष रूप में बोया ही नहीं। वह चाहते तो हर गांव,गली, मोहल्ले,शहर जाते और अपने सिद्धांतों से आमजन को गहरे रूप में जोड़ते,परंतु उनकी इस तरह की पहल जो बहुत पहले होनी थी,हो नहीं  पाई। बहुत पहले कभी रूस के प्रभाव में आकर मार्क्सवाद का ख़ूब प्रचार और प्रसार हुआ। कई पुस्तकें हिन्दी में अनुदित होकर भारत में आईं और सस्ते साहित्य ने तो मार्क्सवाद की स्थापना के लिए बाढ़ ला दी थी। इसके पश्चात न तो वैसी भावना का अनुगमन शेष रहा,न ही मार्क्सवाद के सिद्धांतों को किसी ने गंभीरता से ग्रहण किया और न ही जिस अनुशासन की माँग थी उसे पूर्णता मिल पाई। एक बहुत बड़ी कमी और कमज़ोरी भारतीय मार्क्सवादी पार्टी की यह रही कि,मार्क्सवाद के प्रति प्रतिबद्धताओं और अनुशासनों में भयानक गिरावट आ गई। जब अनुसासन,प्रतिबद्धताएं क्षीण होती हैं,तो उसके परिणाम भी शिथिल होने लगते हैं,यहाँ उन्हीं अवस्थाओं को हू-ब-हू चित्र उभरकर आया है। मार्क्सवादी दल ने और नेताओं ने कभी इस बात पर गहराई से विचार और चिंतन नहीं किया कि मार्क्सवाद के भारत में कमज़ोर पड़ने के क्या कारण हैं? क्यों भारत में मार्क्सवाद उस स्तर पर लागू नहीं हो पा रहा है, जिस स्तर पर वास्तव में आज उसकी बड़ी सशक्त ज़रूरत है? क्यों मार्क्सवादी दल घर-घर जाकर लोगों में मार्क्सवाद की भावना और शिक्षा नहीं बाँट पा रहे हैं? क्यों मार्क्सवाद भारत में सामजिक दर्शन बनकर प्रतिनिधि रूप में नेतृत्व नहीं कर पा रहा है??? एक समाज दर्शन क्यों भारत में स्थापित न हो पा रहा है,जबकि भारत में धर्म-दर्शन चाहे वह अंधविश्वासों से भरा हो स्थापित हो जाता है,तो मार्क्सवाद की स्थापना के प्रयासों में क्या कमी रह रही है?मार्क्सवादी दल के पास कारगर नेतृत्व की कमी क्यों है?एक गहरा चिंतन और प्रयास इस दल के नेताओं ने नहीं किया और न ही अपने को मार्क्सवाद के लिए संघर्षपथ पर ही कभी खपाया। केवल विपक्ष में बैठकर गिने चुने नेताओं के विरोध दर्ज करने, टिप्पणी करने, बयानबाज़ी से मार्क्सवाद कभी फलीभूत नहीं हो सकता है,न ही उसे व्यापक स्तर पर भारत में स्थापित किया जा सकता है। वास्तव में आज मार्क्सवाद को नए सिरे से नए भारतीय संस्कारों से संयोजित करने की गहरी आवश्यकता है ताकि समाज के सही हित का दर्शन भारतीय समाजजन में प्रस्थापित हो पाए। भारत में मार्क्सवाद को स्थापित करने में मार्क्सवादी दल की ही बड़ी भूमिका हो सकती है न कि कला और उसकी समस्त विधाओं की। आज साहित्य, नाटक, ललित कलाओं के माध्यम से समाजवाद अथवा मार्क्सवाद को जीवित तो रखा जा रहा है,लेकिन उसे जन-जन की मुक्ति का साधन बनाना बड़ा कठिन हो चुका है। आज बड़े स्तर पर ज़रूरत है कि मार्क्सवादी दल में नई जान फूँककर मार्क्सवाद को या प्रभाव को फैलाया जाए,ताकि वह आमजन के जीवन के विकास का प्रतिरूप बनकर उभरे। एक बात यहाँ स्पष्ट भी कर दूँ कि भारत ईश्वरीय  आस्थाओं का देश है, जहाँ मार्क्सवाद को चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा,क्योंकि मार्क्सवाद ईश्वर की आस्था से विमुक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित समाजदर्शन है। इसका एक सीधा-सा उपाय है कि मार्क्सवाद को भारत में इस तरह खपाया जाए कि कहीं किसी की साम्प्रदायिक, धार्मिक भावना को ठेस न पहुंचे और मार्क्सवाद की फ़सल भारत में लहरा जाए।
आज बहुत ज़रूरत इस बात की है कि मार्क्सवाद को नए सिरे से भारत में स्थापना दिलाने के लिए एक कारगर नेतृत्व, अनुशासन,चेतना, आस्था,नियोजन,प्रबंधन और गहरे त्याग पर ध्यान दिया जाए,ताकि लोक में इसके प्रति एक आस्था का निर्माण हो सके और भारत का नवनिर्माण आर्थिक समानता, धर्मनिरपेक्षता,मानवीय  समता के साथ एक अधिकार की भावना के तहत हो सके।

                                                                         #डॉ. मोहसिन ख़ान

परिचय : डॉ. मोहसिन ख़ान (लेफ़्टिनेंट) नवाब भरुच(गुजरात)के निवासी हैं। आप १९७५ में जन्मे और मध्यप्रदेश(वर्तमान में महाराष्ट्र)के रतलाम से हैं। आपकी शैक्षणिक योग्यता शोधोपाधि(प्रगतिवादी समीक्षक और डॉ. रामविलास शर्मा) सहित एमफिल(दिनकर का कुरुक्षेत्र और मानवतावाद),एमए(हिन्दी)और बीए है। ‘नेट’ और ‘स्लेट’ जैसी प्रतियोगी परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के साथ ही अध्यापन(अलीबाग,जिला-रायगढ़ में हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निदेशक और अन्य महाविद्यालयों में भी)का भी अनुभव है। 50 से अधिक शोध-पत्र व आलेख राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। साथ ही ‘देवनागरी विमर्श (उज्जैन),
उपन्यास-‘त्रितय’,ग़ज़ल संग्रह- ‘सैलाब’और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ और गज़लें भी प्रकाशित हैं। बतौर रचनाकार आप हिन्दी साहित्य सम्मेलन(इलाहाबाद), राजभाषा संघर्ष समिति(नई दिल्ली), भारतीय हिन्दी परिषद(इलाहाबाद) एवं (उ.प्र. मालव नागरी लिपि अनुसंधान केन्द्र(उज्जैन,म.प्र.)आदि से भी जुड़े हुए हैं। कई साहित्यिक कार्यक्रम सफलता से सम्पन्न करा चुके हैं,जिसमें नाट्य रूपान्तरण एवं मंचन के रुप में प्रेमचंद की तीन कहानियों का निर्देशन विशेष है। अन्य गतिविधियों में एनसीसी अधिकारी-पद लेफ्टिनेंट,आल इंडिया परेड कमांड में सम्मानित होना है। इसी सक्रियता के चलते सेना द्वारा प्रशस्तियाँ एवं सम्मान के अलावा कुलाबा गौरव सम्मान,बाबा साहेब आम्बेडकर फैलोशिप दलित साहित्य अकादमी (दिल्ली)से भी सम्मान पाया है। समाजसेवा में अग्रणी डॉ.खान की संप्रति फिलहाल हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निदेशक तथा एनसीसी अधिकारी (अलीबाग)की है।

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।