कीर्ति जायसवाल
इलाहाबाद(प्रयागराज)
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प्रथमा का चाँद मैं था,
नित्य मैं हूँ बढ़ रहा।
रंगमंच जीवन यह,
स्वांग मैं हूँ रच रहा।
नृत्य मैं हूँ कर रहा,
नित्य मैं हूँ बढ़ रहा।
बढ़ता न सूरज है,
बढ़ते न तारे हैं,
सूरज से ‘रोशन’ हूँ;
जग फिर ‘दमक’ रहा।
नित्य गति हूँ कर रहा,
नित्य मैं हूँ बढ़ रहा।
माना कि पूर्णिमा
जीवन में आएगी,
अगले ही क्षण मेरा
जीवन घटाएगी।
क्षण-क्षण घटूँगा मैं,
सुख को रटूँगा मैं।
मन में यह दुःख भरा
“नित्य मैं हूँ घट रहा”।
एक रात्रि माना
अमावस की आएगी,
माना वह रात्रि कि
जीवन ले जाएगी;
पर अंकुर फूटेगा,
जन्म नया पाऊँगा।
फिर से कहूँगा कि
स्वांग मैं हूँ रच रहा,
प्रथमा का चाँद मैं था,
नित्य मैं हूँ बढ़ रहा।
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