अध्यात्म-चेतना के प्रतीक, भारतमाता मन्दिर से प्रतिष्ठापक ब्रम्हानिष्ठ स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज वर्तमान युग के विवेकानन्द थे । 26 वर्ष की अल्प आयु में ही शंकराचार्य-पद पर सुशोभित हुए और दीन-दुखी, गिरिवासी, वनवासी, हरिजनों की सेवा और साम्प्रदयिक मतभेदों को दूर कर समन्वय-भावना का विश्व में प्रसार करने के लिए सनातन धर्म के महानतम पद को उन्होंने तिनके के समान त्याग भी दिया। जो की वर्तमान समय की असामान्य घटना से कम नहीं थी।
स्वामी जी ने धर्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय-चेतना के समन्वित दर्शन एवं भारत की विभिन्नता में भी एकता की प्रतीति के लिए पतित-पावनी गंगा के तट पर सात मन्जिला भारतमाता मन्दिर बनवाया । जो आपके मातृभूमि प्रेम व उत्सर्ग का अद्वितीय उदाहरण है। इस मन्दिर से देश-विदेश के लाखों लोग दर्शन कर आध्यात्म, संस्कृति, राष्ट्र और शिक्षा सम्बन्धी विचारों की चेतना और प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं।
19 सितंबर, 1932 में सीतापुर (उ.प्र.) में अवतरित हुए अंबिकाप्रसादजी पांडेय (सत्यमित्रानंदजी) बाल्यावस्था से ही अध्ययनशील, चिंतक और निस्पृही व्यक्तित्व के धनी थे। उनके पिताश्री राष्ट्रपति सम्मानित शिक्षक शिवशंकरजी पांडेय ने उन्हें सदैव अपने लक्ष्य के प्रति सजग और सक्रिय बने रहने की प्रेरणा दी। महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज से उन्हें सत्यमित्र ब्रह्मचारी नाम मिला और साधना के विविध सोपान भी प्राप्त हुए। 29 अप्रैल, 1960 अक्षय तृतीया के दिन स्वामीजी ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ पर जगद्गुरु शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। प्रख्यात चिकित्सक स्व. डॉ. आरएम सोजतिया से निकटता के चलते भानपुरा क्षेत्र में उन्होंने अतिनिर्धन लोगों के उत्थान की दिशा में अनेक कार्य किए। स्वामीजी ने 1969 में स्वयं को शंकराचार्य पद से मुक्त कर गंगा में दंड का विसर्जन कर दिया और केवल परिव्राजक संन्यासी के रूप में देश-विदेश में भारतीय संस्कृति व अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न रहे । पद विसर्जन की यह घटना अनसोचा, अनदेखा, अनपढ़ा कालजयी आलेख बना। पदलिप्सा की अंधी दौड़ में धर्मगुरु भी पीछे नहीं हैं। इसमें उनकी साधना, संयम, त्याग, तपस्या और व्रत सभी कुछ पीछे छूट जाते हैं। ऐसे समय में स्वामीजी द्वारा किया गया पद विसर्जन राजनीति और धर्मनीति की जीवनशैली को नया अंदाज दे गया। उनकी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2015 में उन्हें पदम् भूषण से सम्मानित किया।
स्वामी जी ने 1988 में समन्वय सेवा फाउंडेशन की स्थापना की जिसका उद्देश्य गरीब लोगों, पहाड़ी इलाकों में शिक्षा एवं सेवा के उपक्रम संचालित करना हैं। उन्होंने समन्वय परिवार, समन्वय कुटीर, कई आश्रम और कई अन्य सामाजिक, आध्यात्मिक और धार्मिक कार्यक्रम भी स्थापित किए थे। वे पिछले पांच दशकों के दौरान कई देशों की यात्रा कर चुके थे और कई देशों में बहुत से अनुयायी हैं। उन्होंने कईं देशों में शिक्षा और पूजा केंद्र स्थापित किए थे।
स्वामीजी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक महापुरुष थे। उन्होंने सांस्कृतिक चेतना को जागृत कर मानव के नवनिर्माण का बीड़ा उठाया था । वे हिन्दू समाज के पतन से चिंतित थे और इसके लिए वे सदैव व्यापक प्रयत्न करते रहे। भारत की संस्कृति को जीवंत करने के लिए उनके प्रयास उल्लेखनीय रहे। स्वामीजी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे साथ ही महान साधक भी थे। लोककल्याण के लिए ही उनकी जीवनयात्रा चलयमान रही है। मानवीय मूल्यों के प्रति वे समर्पित रहे। भारतीय वांग्मय के उद्घोष वसुधैव कुटुम्बकम् और सर्वे भवन्तु सुखिनाः के मंत्रों को आत्मसाध कर स्वामीजी उसी दिशा में अग्रसर रहे।
25 जून 2019 को ब्रह्म बेला में स्वामीजी अपने जीवन में विकास की अनगिनत उपलब्धियों को मनुष्य समाज को समर्पित करते हुए देह से विदेही हो गये। लेकिन उनकी शिक्षाएं, कार्यक्रम, योजनाएं, विचार सदैव न केवल हिन्दू समाज बल्कि राष्ट्रीयता के उज्ज्वल इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ रहेंगे। उनके पुरुषार्थी जीवन की एक पहचान थी गत्यात्मकता। वे अपने जीवन में कभी कहीं रुके नहीं, झुके नहीं। प्रतिकूलताओं के बीच भी आपने अपने लक्ष्य का चिराग सुरक्षित रखा। आज उनकी दिव्यात्मा ब्रह्मलीन हो गयी, लेकिन वे सदैव जीवित रहेंगे भारतीय जन मानस में और एक युग निर्माता के रूप में इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों में । सादर नमन दिव्य विभूति को …।
#संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश)