धीर बनो गम्भीर बनो,
सागर का तुम नीर बनो।
लुटती हो मर्यादाएं जब-जब,
द्रोपदी का तुम चीर बनो।
देनी हो प्रेम-प्यार की परिभाषा,
तब-तब राधा की पीर बनो।
आते सुख-दुःख जब-जब,
तब दुःख को भी अपना लो..
सुख की न तुम जागीर बनो।
पीकर गरल हलाहल सारा,
अमृत की तुम तासीर बनो।
धीर बनो गंभीर बनो,
सागर का तुम नीर बनो।
# विवेक दुबे
परिचय : दवा व्यवसाय के साथ ही विवेक दुबे अच्छा लेखन भी करने में सक्रिय हैं। स्नातकोत्तर और आयुर्वेद रत्न होकर आप रायसेन(मध्यप्रदेश) में रहते हैं। आपको लेखनी की बदौलत २०१२ में ‘युवा सृजन धर्मिता अलंकरण’ प्राप्त हुआ है। निरन्तर रचनाओं का प्रकाशन जारी है। लेखन आपकी विरासत है,क्योंकि पिता बद्री प्रसाद दुबे कवि हैं। उनसे प्रेरणा पाकर कलम थामी जो काम के साथ शौक के रुप में चल रही है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं।