माना कि मैं दूसरी थी,
पर कृति तो माँ तेरी थी।
याद है मुझे वो पैना औजार ,
जो मेरी कोमल सी देह को छुआ,
और मैं डर कर सिकुड़ सी गई,
मैं डर रही थी,
ढूंढ रही थी तुम्हें,
चाहती थी अपने दोनों हाथों में,
समेट लो, सहेज लो मुझे,
माँ, मैं डर रही थी,
और, तुम मेरे साथ नहीं थी।
उस दानवी सी शक्ति ने,
मुझे टुकड़ा टुकड़ा काटा,
जाने कितने भागों में बांटा।
मैं धीरे धीरे मर रही थी,
और माँ, तुम कहीँ भी नहीं थी,
मेरे चारों और लाल रंग खून का,
अजीब सी गन्ध थी,
मेरी साँसे उखड़ रही थी,
मैं तुम्हें ढूंढती रही,
जाने तुम कहाँ बन्द थी।
अब मेरी देह के टुकड़े,
किसी कचरे पात्र में डाले गये,
आखरी साँसे लेती मैं,
क्या देखती हूं,
वहाँ खड़ी सभी दानवी मूर्तियां,
मुस्करा रही थी,
और तुम,
उस मुस्कराहट में,
सुर मिला रही थी,
मेरा कलेजा धक् से रह गया।
तुम्हें भी अवांछित से,
छुटकारा मिल गया।
माँ मुझे आना था दुनिया में,
पाना था सबका प्यार,
और चाह थी मेरी,
मैं तेरी पहचान बनूँ,
वंश का अभिमान बनूँ।
पर तुमने न दिया मुझे ये अधिकार,
दुनियां में आने से पहले दिया मुझे मार।।
माँ अब नहीं ढूंढती तुम्हें मैं,
क्योंकि जान गई हूं,
तुम भी शामिल हो,
मुझे मारने में,
ईश्वर की अनुपम कृति का,
अपमान किया है तुमने,
माँ होकर माँ का नाम,
बदनाम किया है तुमने।
मैं जा रही हूँ माँ,
नहीं आऊंगी तेरे,
स्वप्न में भी कभी,
जा रही हूं दूर तेरी कल्पना से भी,
नहीं बनूँगी अब लाल गुलाब,
क्योकि लाल रंग से
नफरत है मुझे,
सितारा बन देखूंगी,
तड़फते हुए,
तुम धरती के दानवों को,
तड़फोगे तुम,
माँ, पत्नी और बहन के लिये।
जीवन दे जा रही हूं मैं,
तरसोगे तुम अब बेटी के लिए।
मैं कभी नहीं आऊंगी,
तुम्हारे आशियाने अपने हाथों से
अब नहीं सजाऊंगी।।
माँ तुम, अपराधिनी हो,
सबसे पहले ,
तुम मेरी अपराधिनी हो,
तुम ही सृजन की आड़ में,
मुझ मासूम की विनाशिनी हो।
न देती गर तुम अपनी सहमति,
तो कैसे हो सकती थी मेरी दुर्गति।
तुमने नारी होकर भी, मेरा मोल न जाना,
थी मैं ईश्वर का आशीष अनमोल,
पर तुमने ना पहचाना।।
#पायल शर्मा, डूंगरपुर