बात उन दिनों की है जब मैं स्कूल में पढ़ता था।मेरा एक दोस्त जो मेरे साथ ही पढता था। उसे साथ लेने मै अक्सर उसके घर जाया करता था। चूँकि स्कूल दूर थी,और रास्ते सूनसान होते थे तो हम दोनो एक दूसरे को साथ लेकर ही जाते थे । एक दिन की बात है मैं सुबह के तरीबन 9•15 बजे उसके घर गया।वो
भी तैयारी कर रहा था।इतने में बगल के एक परिवार में हल्ला होने लगा हमदोनो दौडकर गये मामला कुछ समझ में नही आने पर मैने किसी परिचित से पूछा!
ये हल्ला क्यों हो रहा है खेलावन भाय?
उसने कहा-बाबू यह झगडा माँ के बँटबारे का है?
मैने कहा यह कैसे हो सकता है?
इस युग में सब होता है बाबू! देख लो उस बुढिया के तीन बेटे है तीन बहुएँ और पोता पोती नाती सभी है लेकिन आज बेटों को देखो कैसे चिल्ला रहा है कि मै माँ को इतना दिन रखा तूने नहीं रखा भला माँ का भी बँटवारा होता है इन्हीं झगड़ो की वजह से माँ किसी के पास रहना नही चाहती।दरअसल साल के बारह महीने होते है तीनो पुत्र को चार चार महीने का पार बंघा है माँ को रखने का लेकिन उसमें भी आना कानी भला कैसा समय आ गया लोग माँ को भी बाँट ने लगे है पर माँ क्या करे?अपनी ममता का भला कैसे बाँटे ? जब उसने इनको पाला पोशा होगा तो सभी को एक जैसा ही समझकर अपने आँचल से प्यार और ममता की छांव में बड़ा किया होगा पर आज देखो बाबू कैसे ये लोग इसकी ममता का भी बँटवारा करके जीते जी मार रहे हैं। सचमुच वो मंजर देखकर किसी का भी दिल पसीज जाता मैं खेलावन की बातो में इतना खो गया कि स्कूल भी नही जा सका और घर आकर चुपचाप आज की घटनाओ पर सोच रहा था कि आखिर ऐसा क्यू होता है क्या समाज का कोई फर्ज ऐसी घटनाओं या अपेक्षाओं के शिकार लोगों के लिए कार्य क्यों नही करते ? अगर लडके/लडकी माँ की देखभाल या बँटवारा करती है तो उस स्थिति में माँ क्या करेगी ये सोचते हुए मै बेचैन सा हो गया।
उस एक घटना का जिक्र आज की परिदृश्य में और बढ गया है। दरअसल स्वार्थ इस कदर हावी है लोगों पर कि वह सोचने समझने और नैतिक पतन की ओर जाने पर भी अफसोस महसूस नहीं करता और विलासिता में डूब जाता है। एकल मानसिकता की प्रवृति की ओर बढता समाज आज बुजुर्गो को बाँटने लगे है और अपने फर्ज से भटक रहे है।भाईयो के झगडे तो आम बात है लेकिन माँ या बाप का बँटवारा अनैतिकता की पराकाष्टा।समाज मे बढ़ रहे बुजुर्गो की उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं और बढती बृद्धाआश्रम तो चीख-चीख कर कुव्यवस्थाओं और अनैतिकताओं की कहानी को उजागर करने को काफी हैं।आखिर कब-तक बुजुर्ग अपनों से ही उपेक्षित होते रहेंगे।उन बच्चों के लिए सोचना ही होगा जो कल के भविष्य है अगर ऐसे ही बृद्धाआश्रम बढते रहे तो हमारी संस्कृति का उपदेश देने वाला बृद्धाआश्रम के चार दिवारी में कैद होकर रह जाएगा और बच्चो को संस्कृति की समझ ही नहीं होगी वो सामाजिक परम्पराओं से परिचित और वंचित होते रहेंगे ऐसे में एक बेहतर समाज की परिकल्पना करना कठिन है।
“आशुतोष”
नाम। – आशुतोष कुमार
साहित्यक उपनाम – आशुतोष
जन्मतिथि – 30/101973
वर्तमान पता – 113/77बी
शास्त्रीनगर
पटना 23 बिहार
कार्यक्षेत्र – जाॅब
शिक्षा – ऑनर्स अर्थशास्त्र
मोबाइलव्हाट्स एप – 9852842667
प्रकाशन – नगण्य
सम्मान। – नगण्य
अन्य उलब्धि – कभ्प्यूटर आपरेटर
टीवी टेक्नीशियन
लेखन का उद्द्श्य – सामाजिक जागृति