मिनल…एक 14 साल की मासूम लडकी, जिसमें बच्चों वाली चंचलता अभी शेष है और वो अपने उम्र के दोस्त और अपनी कक्षा के सहपाठीयों के संग खेलना चाहती है, घूमना चाहती है।
मगर उसकी सभी इच्छाओं पर तब वज्र गिर जाता है जब उसे यह कहकर बाहर जाने से रोक दिया जाता है कि “तुम लडकी हो, तुम्हे लड़कों के साथ नही खेलना चाहिये, चुपचाप स्कूल जाओ ओर सीधा घर को आओ”।
उस मासूम सी बच्ची को अभी तक ना तो इन सब चीजों की खबर थी और ना ही कोई विशेष जानकारी।
इसके अतिरिक्त उसे उसकी माँ ने भी तस्सली से बैठा कर कभी समजाने की कोशिश नही की।
यह समय का वो दौर था जब एक लडकी की शारिरीक संरचना में आवश्क्य परिवर्तन होता है, उस वक्त वह सबसे ज्यादा मानसिक दबाव महसूस होता है, वक्त की नजाकत तो यही कहती थी कि मिनल को इस वक्त माँ की जरुरत थी मगर वो खुद इस बारें में अपनी माँ से बात करने में हिचक रही थी, और ऊपर से भारतीय संस्कृति जो इस तरह की बातो को खुलेआम करने से रोकती थी।
मिनल का मानसिक दबाव बढता जा रहा था, उस मासूम सी बच्ची को अभी तक समझ नही रहा था कि कल तक उसकी हर जिद पूरी करने वाले माता पिता उसे आज हर कार्य के लिए रोक क्यों रहे है, अब उससे इतने सवाल जबाव क्यों कर रहे है।
मिनल जब भी अपनी तरफ से कोई प्रश्न करती तो उसे जबाव मिलता,”समय के साथ साथ सब समझ जाओगी तुम लडकी हो समझो इसे”
अब मिनल को अपने लडकी होने पर खुद से घृणा होने लगी थी,मगर अब समय बदल चुका था, मिनल को पढाई से लेकर बाहर जाने तक हर चीज में घर वालो से आज्ञा लेनी पड़ती थी।
मिनल स्कूली शिक्षा के बाद कॉलेज जाना चाहती थी,मगर कॉलेज घर से दुर होने के कारण उसे आगे नही पढ़ाया गया।
जैसे ही मिनल 19 वर्ष की हुई उसके रिस्तेदार उसके घर वालो से पूछते “लडकी बडी हो गयी है शादी कब करवा रहे हो इसकी”
मिनल इसे ही अपना भाग्य समझ चूकी थी, उसे लगता था की लड़की होना उसकी कमजोरी बन गयी थी।
और यही कटु सत्य है कि समाज में लडकियों को प्रोत्साहन देने की जगह हर स्तर पर उसे यह अहसास करवाया जाता है कि वे कमजोर है उन्हे अपनी सरहदों से बाहर कदम तक रखने की अनुमती नही है।
इस बात में कतई कोई दोहराई नही है कि वर्तमान समय में स्थितियाँ कुछ हद तक बदली है मगर उतनी नही जितनी बदलनी चाहिये थी।
आजादी के बाद भी लडकियों के लिए लोगो का नजरिया नही बदला है।
शिक्षा:- लडकियों की स्वतंत्रता को सरहदों में नही बाँधना चाहिए।
#राहुल सेठ “राही”