रश्मिरथी
डॉ कुँअर बेचैन: गीत की अंगड़ाई से कविता के यौवन तक
डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’
दुख ने तो सीख लिया आगे-आगे बढ़ना ही
और सुख सीख रहे पीछे-पीछे हटना
सपनों ने सीख लिया टूटने का ढंग और
सीख लिया आँसुओं ने आँखों में सिमटना
पलकों ने पल-पल चुभने की बात सीखी
बार-बार सीख लिया नींद ने उचटना
दिन और रात की पटरियों पे कटती है
ज़िन्दगी नहीं है, ये है रेल-दुर्घटना।
जुलाई 1942 की पहली तारीख को उत्तर प्रदेश के उमरी गांव (ज़िला मुरादाबाद) में पिता श्री नारायणदास सक्सैना व माता श्रीमती गंगादेवी के घर जन्में कुँवर बहादुर सक्सेना जो हिन्दी की वाचिक परंपरा के महनीय हस्ताक्षर है। आपका बचपन चंदौसी में बीता। आप एम.कॉम, एम.ए (हिंदी) व पी-एच.डी हैं।
आपने ग़ाज़ियाबाद के एम.एम.एच. महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में अध्यापन किया व रीडर भी रहे। आप हिंदी ग़ज़ल व गीत के हस्ताक्षर हैं।
आपके अनेक विधाओं मे साहित्य-सृजन किया है। आपके अनेक गीत संग्रह, ग़ज़ल संग्रह, काव्य संग्रह, महाकाव्य तथा एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं।
सम्मान: साहित्य सम्मान (1977), उ०प्र० हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण (2004), परिवार पुरस्कार सम्मान, मुंबई (2004), राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैलसिंह एवं महामहिम डॉ० शंकरदयाल शर्मा द्वारा सम्मानित, अनेक विश्व विद्यालयों तथा महाराष्ट्र एवं गुजरात बोर्ड के पाठ्यक्रमों मे संकलित।
आपकी धर्मपत्नी संतोष जी है, आपकी संतान पुत्री वंदना कुंअर एवं पुत्र- प्रगीत कुंअर है। आप अब तक ३१ से अधिक किताबें लिख चुके है। हिन्दी कविताओं को टीवी सीरियल, फिल्मों तक पहुँचाने में आपका बहुत योगदान रहा है।
आपके गीत संग्रह में -पिन बहुत सारे (1972), भीतर साँकलः बाहर साँकल (1978), उर्वशी हो तुम (1987), झुलसो मत मोरपंख (1990), एक दीप चौमुखी (1997), नदी पसीने की (2005), दिन दिवंगत हुए (2005), ग़ज़ल-संग्रह: शामियाने काँच के (1983), महावर इंतज़ारों का (1983), रस्सियाँ पानी की (1987), पत्थर की बाँसुरी (1990), दीवारों पर दस्तक (1991), नाव बनता हुआ काग़ज़ (1991), आग पर कंदील (1993), आँधियों में पेड़ (1997), आठ सुरों की बाँसुरी (1997), आँगन की अलगनी (1997), तो सुबह हो (2000), कोई आवाज़ देता है (2005); कविता-संग्रह: नदी तुम रुक क्यों गई (1997), शब्दः एक लालटेन (1997); पाँचाली (महाकाव्य) शामिल है।
आपने बतौर रीडर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, एम.एम.एच.कालेज, ग़ाजि़याबाद, संयोजक, शोध-समिति, मेरठ विश्वविद्यालय एवं संयोजक, पाठ्यक्रम समिति, मेरठ वि.वि. भी कार्य किया है। इन सब के अतिरिक्त हिंदी की वाचिक परंपरा के सशक्त हस्ताक्षर आदरणीय कुँवर बैचैन साहब हिंदी की गरिमा को स्थापित कर रहे है।
डॉ कुँअर बेचैन
रस -शृंगार रस
अनुभव – ४ दशकों से अधिक
निवास- गाजियाबाद (उत्तरप्रदेश)