अरसे बाद अभिनेता नाना पाटेकर बनाम गुमनाम सी हो चुकी अभिनेत्री तनुश्री
दत्ता प्रकरण को एक बार फिर नए सिरे से सुर्खियां बनते देख मैं हैरान था।
क्योंकि भोजन के समय रोज टेलीविजन के सामने बैठने पर आज की मी टू से
जुड़ी खबरें… की तर्ज पर कुछ न कुछ चैनलों की ओर से नियमित परोसा जाता
रहा। मैं सोच कर परेशान था कि इतने साल तक ठंडे बस्ते में रहने के बाद
अचानक यह विवाद फिर सतह पर कैसे आ गया और इस पर दोबारा हंगामा क्यों मच
रहा है। मुझे समझने में थोड़ा वक्त लगा कि यह मीटू कैंपेन की वजह से हो
रहा है। मेरा मानना था कि पहले की तरह ही यह नया विवाद भी जल्द ठंडा पड़
जाएगा। लेकिन यह क्या । यह तो मानो मी टू की होली थी। भद्रजनों की होली
जैसी होती है। ना – ना करते एक के बाद एक सभी के चेहरे रंगों की कालिख से
सराबोर हो गए। आलम यह कि कौन फंसा नहीं बल्कि कौन बचा का सवाल अहम हो
गया। अभिनेता से लेकर पत्रकार – संपादक तक इस विवाद की चपेट में आ गये।
छात्र जीवन में जो शख्स मेरे आइकॉन या आदर्श थे, उन्हें ऐसी कीचड़ वाली
होली के रंग में रंगा देख मैं हतप्रभ रह गया। क्योंकि समाचार की हेड लाइन
लगातार वही बन रहे थे। कभी लगता बेचारे की कुर्सी चली जाएगी फिर जान
पड़ता अरे नहीं बच जाएगी… पार्टी उसके साथ है… कुछ देर बाद …नहीं
… जाना ही पड़ेगा… पार्टी ने पल्ला झाड़ लिया है। ऐसा लगता मानो
चैनलों पर न्यूज नहीं बल्कि भारत – पाकिस्तान के बीच खेला जा रहा 20- 20
मैच देख रहा हूं। इस विवाद की पृष्ठभूमि में मेरे मन में एक और सवाल
कौंधा। मैं मानो खुद से ही सवाल करने लगा कि क्या मी टू की जद में आए
सारे विवाद मीडिया में इसलिए सुर्खियां नहीं पा सके क्योंकि आरोप लगाने
वाले और आरोपी दोनों अभिजात्य वर्ग से हैं। क्या पीड़िता यदि साधारण वर्ग
की महिला होती तो उसे भी मीडिया में इतना हाइप मिल पाता। मीटू विवाद के
पीछे सनसनी , सस्पेंस , रहस्य – रोमांच, ग्लैमर और चटपटेपन का तड़का है
इसीलिए वह इतनी प्रमुखता से सुर्खियां पा सका। अन्यथा साधारण मामलों में
तो यह कतई संभव नहीं हो पाता। क्योंकि पेशे के चलते मैने कई ऐसे पीड़ितों
को न्याय दिलाने की कोशिश की। लेकिन उत्पीड़न और अन्याय का असाधारण मामला
होने के बावजूद उसे लोगों का ज्यादा रिस्पांस नहीं मिल पाया। समाज के
अभिजात्य और ताकतवर वर्ग ने जिससे न्याय मिलने की उम्मीद थी ऐसे प्रकरणों
का नोटिस लेना भी जरूरी नहीं समझा। तभी मेरे जेहन में उस मैकेनिकल
इंजीयनिर नौजवान का मासूम चेहरा उभर आया, जो आधार कार्ड में यात्रिंकी
गड़बड़ी के चलते पहचान के विचित्र संकट से गुजर रहा है। आधार के
बायोमीट्रिक पर अंगुली रखते ही उसकी पहचान के साथ किसी और की पहचान भी
मिल जाती है और एक मिश्रित व संदिग्ध पहचान आधार की मशीन पर उभरती है। इस
समस्या के चलते वह नौजावन पिछले एक साल से न सिर्फ बेरोजगार बैठा है
बल्कि दर – दर की ठोकरें खाने जैसी परिस्थिति उसने सामने है। उसकी चिंता
में बूढ़े मां – बाप का का भी मारे तनाव के बुरा हाल है। पूरा परिवार रात
की जरूरी नींद भी नहीं ले पा रहा। उसकी विचित्र विडंबना को मैने अपने
पेशेवर दायित्व के तहत प्रचार के रोशनी में लाने की भरसक कोशिश की। लेकिन
सफलता नहीं मिल पाई। हालांकि उसका मामला प्रचार की रोशनी में आते ही बड़ी
संख्या में ऐसे लोगों ने मुझसे संपर्क कर बताया कि उनकी भी कुछ ऐसी ही
परेशानी है, जिससे निजात का कोई रास्ता उन्हें नजर नहीं रहा। केंद्र
सरकार अधीनस्थ मामला होने से स्थानीय प्रशासन इस मामले में किसी भी
प्रकार की मदद से साफ इन्कार कर रहा है। जबकि संबंधित विभाग से पत्राचार
या शिकायत पर केवल प्राप्ति रसीद और आश्वासन के कुछ नहीं मिल पाता।
पीड़ितों की आपबाती सुन कर फिर मेरे दिमाग में यह बात दौड़ने लगी कि
बेवजह तनाव और परेशानी झेल रहे ऐसे निरीह लोगों की समस्या मीडिया की
सुर्खियां तो दूर स्थान भी क्यों हासिल नहीं कर पाती। जबकि मीटू जैसे
प्रकरण पर रोज हमारा ज्ञान वर्द्धन हो रहा है । सचमुच इस विडंबना से मैं
वाकई विचलित हूं।
#तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं | तारकेश कुमार ओझा का निवास भगवानपुर(खड़गपुर,जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है |