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जब चला था कर शुभारम्भ
तब नहीं था ज्ञात उसको
कि मिलेगी राह उसको
या दबेगी चाह उसकी
पर बनाये हाथ से अपने
सुसज्जित और सुंदर
रथ पे उसको गर्व था
विश्वास भी कि यह चलेगा
औ बढेगा पर नहीं कुछ
विपद् पा कर के रुकेगा
औ बढाया रथ को अपने
जिन्दगी की राह पर
उस राह पर जिसपे
नहीं सपनो का अर्थ होता
प्रतिभा जहां दम तोड़ती
साहस जहां सब व्यर्थ होता
यह सभी कुछ सोचकर भी
हाथ में लगाम ले ली
औ मचानें लगा चिर निद्र में
सोये हुये युग काल में
हलचल धीरे धीरे ।
नव रथी ले चल रहा ,रथ हांक धीरे धीरे ।
है कहीं गिरि उच्च कोई
तरु लदे ऊंघे हुए से
खांइया कुछ खंदके गहरी
सजी बिखरी पड़ी पलकें
बिछाये ये बताने कि अभी भी
सोच लो यह राह कितनी
है बची लायक तुम्हारें
पर बढ़ा वह सोचकर यह
जग तो कहता ही रहेगा
आकलन को सोचने को
पर कहां जग देख सकता
कौन सा पथ कौन सा रथ
कब , कहां, किसके लिए
ही ठीक होता
विश्व केवल एक ऐसी
दृढ सजित संभावना का
क्षेत्र है जो कि जिसमें जब
चाहे ढूढ ले असंख्य राहें
औ चले फिर और पहुंचे
उस ऊंचाई पर कि जिस पर
आज तक अब तक नहीं
कोई कभी भी चढ सका हो
सोचकर इतना ही चलता रहा
राही निज बुद्धि मे बह रही
सरिता के तीरे तीरे ।
नव रथी ले चल रहा , रथ हांक धीरे धीरे ।
#अनूप सिंह
परिचय : अनूप सिंह की जन्मतिथि-१८ अगस्त १९९५ हैl आप वर्तमान में दिल्ली स्थित मिहिरावली में बसे हुए हैंl कला विषय लेकर स्नातक में तृतीय वर्ष में अध्ययनरत श्री सिंह को लिखने का काफी शौक हैl आपकी दृष्टि में लेखन का उद्देश्य-राष्ट्रीय चेतना बढ़ाना हैl
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Fri Oct 5 , 2018
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