कोहरा, वैसे ही नहीं
छा जाता
जैसे, छा जाता है रोज
उजियारा और अँधेरा
अपने निश्चित समय पर
निसर्ग के उच्छ्वासों का
वाष्पित उद्बोधन है
कोहरा
जिसकी सीली- सीली छुवन से
पसीज उठती है
धरती की हरीतिमा,
सो जाती है धूल
सड़कों की
और विलंबित हो जाती है
वक्त की रफ्तार
दायरों से परे होती
उसकी स्फीति में
रास्ते सहज ही गुम हो जाते हैं
और गुम हो जाते हैं
पेड़, मकान, लोग
ठीक वैसे ही
जैसे गुम हो जाता है
हमारा होना
मौन के कोहरे से भरे
कोने वाले कमरे से।
#“सत्यप्रसन्न”
परिचय-
नाम- सत्यप्रसन्न
जनक- स्व. प्रभाकर राव
जननी- स्व. पद्मावती
मातृभाषा- तेलगु
शिक्षा- यांत्रिकी में पत्रोपाधि
सेवा क्षेत्र- छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी मर्यादित
संप्रति- उपरोक्त संस्थान से अधीक्षण अभियंता के पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वाध्याय, और लेखन। सामाजिक गतिविधियों में सहभागिता।
अन्य- यदाकदा आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण। एकाधिक बार स्थानीय दूरदर्शन से भी। कुछ एक साझा संकलनों में कविताएं प्रकाशित। पत्र-पत्रिकाओं की भी कभी-कभी कृपा हो जाती है ।