थरथराहट
जब भी गुजरता हूँ पुल पर से
थरथराहट सी होती है
देखा है मैंने
जितना मैं थरथराता हूँ
उतना ही थर्रा जाता है
पुल भी
उसे भी भरोसा नहीं है
अपने रचनाकार पर
मुझे भी अब नहीं रहा
क्योंकि
उस ऊपर वाले
रचनाकार का कोई पता भी नहीं है
न ही किसी ने उसे देखा है
पुल की और मेरी
थरथराहट एक जैसी ही है
भरोसे पर ही पुल भी खड़ा है
और हम भी अपनी आस्था पर
जब भी मैं या कोई और
गुजरता है पुल पर से
गुजर जाने पर
राहत की साँस लेते हैं
शुक्रगुज़ार होकर
दोनों ही
क्योंकि
दोनों ही भरोसेमंद होकर भी
डरते हैं अपने रचनाकार से।।
परिचय
नाम- डॉ प्रदीप उपाध्याय
वर्तमान पता- 16,अम्बिका भवन,उपाध्याय नगर, मेंढकी रोड,देवास,म.प्र.
शिक्षा – स्नातकोत्तर
कार्यक्षेत्र- स्वतंत्र लेखन।शासकीय सेवा में प्रथम श्रेणी अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त
विधा- कहानी,कविता, लघुकथा।मूल रूप से व्यंग्य लेखन
प्रकाशन- मौसमी भावनाएँ एवं सठियाने की दहलीज पर- दो व्यंग्य संग्रह प्रकाशित एवं दो व्यंग्य संग्रह प्रकाशनाधीन।
देवास(मध्यप्रदेश)