माँ, मातृभूमि और मातृभाषा का कर्जदार राष्ट्र का प्रत्येक निवासी है, और इसी कारण ही राष्ट्रवासी अपने सेवा के भाव को जीवित रखते है। हिंदी न केवल एक भाषा मात्र है बल्कि भारत की सांस्कृतिक अखंडता के परिचय का दूसरा नाम है। ‘एक राष्ट्र- एक राष्ट्रभाषा’ के सिद्धांत में ही भारत की समस्त सांस्कृतिक अखंडता मूलक समस्याओं का समाधान है। जैसे कि देश में क्षेत्रवाद का हल हिंदी है, नव त्रिभाषा के सूत्र में एक राष्ट्रभाषा के माध्यम से क्षेत्रवाद की समस्या हल हो सकती है। जातिवाद पर चोट एक राष्ट्रभाषा होने से की जा सकती है, तर्क अनुसार तो जब राष्ट्र की भाषा एक है तो फिर भेद कैसा? एक भाषा- एक राष्ट्र की परिकल्पना का साकार रूप ही समस्या का समाधान है। जब जातिवाद और क्षेत्र वाद समाप्त हो गया तब तो राष्ट्रीय एकता को अन्यत्र कहीं खतरा नजर ही नहीं आएगा।
इसी तरह हमारे राष्ट्र में संस्कार सिंचन की प्राथमिक पाठशाला बच्चे का घर और परिवार होते है, जिस तरह बच्चें की माँ नौ महा अपनी कुक्षी में उस बच्चे को पालती है, अपना दूध पिलाती है, उसका ख्याल रख कर बड़ा करती है , तब बच्चा माँ और पिता का कर्जदार हो जाता है। इसी तरह हमारे यहाँ संस्कारों का ककहरा जिस भाषा में सिखाया जाता है वो है मातृभाषा। और ८० प्रतिशत हिंदुस्तान की मातृभाषा हिंदी है, इसी के आधार पर हिंदी का कर्जदार भी पूरा देश है। क्योंकि यदि संस्कार नहीं होते तो शिक्षित नहीं होते, शिक्षित नहीं होते तो जीवन यापन करने में कठिनाइयाँ आती। मतलब साफ है कि आपके वर्तमान जीवन के लिए आपके चिंतन के मूल में संस्कार है और वह संस्कार आपकी मातृभाषा हिंदी में ही दिए गए है, क्योंकि अंग्रेजी नस्ल तो हमारे यहाँ पैदा नहीं होती।
जब हम कर्जदार है हिंदी भाषा के तो हमारा भी दायित्व उसके प्रति बनता है। वर्तमान में भारत के ही विभिन्न प्रांतों में हिंदी का महत्व नहीं स्वीकारा जा रहा है और उसके गौरव की स्थापना अभी भी अधूरी है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक कर्जदार को हिंदी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाहन करना चाहिए। हिंदी भारत में संवाद की प्रथम कारक है। भाषा का अपना एक अपना महत्व है जिसके कारण संवाद का प्रारम्भ होता है और संवाद का पहला कायदा है कि जिन दो व्यक्तियों के बीच संवाद होना हैं उनकी भाषा का एक होना भी आवश्यक हैं। जैसे यदि आदमी और कौवे की भाषा अलग अलग नहीं होती तो शायद भारत के कौवे भी गीता और कुरान पढ़ रहे होते। इसलिए संवाद स्थापित करने की पहली शर्त दोनों की भाषा का एक होना है। भाषा से संस्कार जिन्दा होते है, संस्कारो का परिष्कृत स्वरूप ही संस्कृति का परिचय है, रहन-सहन के अतिरिक्त संवाद आवश्यक तत्व है। देश में एक भाषा की आवश्यकता क्यों हैं इसका महत्वपूर्ण तर्क इस बात से साबित होता है कि जैसे यदि आप पंजाबी भाषी है और आप भारत के एक हिस्से दक्षिण में जाते है, और वहां की भाषा तमिल, तेलगु, मलयाली या कन्नड़ हैं, और आप न तो द्रविड़ भाषाओँ को जानते हैं न ही वे पंजाबी। ऐसी स्थिति में न आप संवाद कर पाएंगे न ही वो। और संवाद न होने की दशा में समय और कार्य व्यर्थ हो जाएगा। अब ऐसी ही स्थिति में देश के आंतरिक भू भागों पर भी अलग-अलग भाषाओँ के होने से समरूपता दृष्टिगोचर नहीं होती। इसलिए कम से कम भारत की एक प्रतिनिधित्व भाषा होना चाहिए जिसका देश की अन्य भाषाओँ के साथ समन्वय भी हो और वो सम्पूर्ण राष्ट्र में अनिवार्य हो। अब दूसरी महत्वपूर्ण बात कि अब इस एक भाषा का चुनाव कैसे हो? इसके लिए इस तर्क को समझना होगा कि किस भाषा का प्रभुत्व जनसंख्याबल के अनुसार अधिक हैं।
हिन्दी भाषा के विकास में संतों, महात्माओं तथा उपदेशकों का योगदान भी कम नहीं आँका जा सकता है। क्योंकि वह आम जनता के अत्यंत निकट होते हैं। इनका जनता पर बहुत बड़ा प्रभाव होता है। उत्तर भारत के भक्तिकाल के प्रमुख भक्त कवि सूरदास, तुलसीदास तथा मीराबाई के भजन सामान्य जनता द्वारा रस के साथ गाए जाते हैं। इसकी सरलता के कारण ही कई लोगों को कंठस्थ हैं।
इसका प्रमुख कारण हिन्दी भाषा की सरलता, सुगमता तथा स्पष्टता है। संतों-महात्माओं द्वारा प्रवचन भी हिन्दी में ही दिए जाते हैं। क्योंकि अधिक से अधिक लोग इसे समझ पाते हैं। उदाहरण के रूप में दक्षिण-भारत के प्रमुख संत वल्लभाचार्य, विट्ठेल रामानुज तथा रामानंद आदि ने हिन्दी का प्रयोग किया है। उसी प्रकार महाराष्ट्र के संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर आदि, गुजरात प्रांत के नरसी मेहता, राजस्थान के दादू दयाल तथा पंजाब के गुरु नानक आदि संतों ने अपने धर्म तथा संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए एकमात्र सशक्त माध्यम हिन्दी को बनाया। हमारा फिल्म उद्योग तथा संगीत हिन्दी भाषा के आधार पर ही टिका हुआ है।
भारत पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से २०० से २५० वर्षों तक अंग्रेजो का शासन रहा, अल्पावधि तक फ्रांसीसियों एवं डच आक्रान्ताओं का प्रभाव भी रहा। भारत के कुछ भू-भागों जैसे केरल, गोवा (मालाबार का इलाका आदि) पर तो, पुर्तगालियों का ४००–४५० वर्षों तक शासन रहा। भारत पर ७–८ शताब्दी से आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, तैमूर लंग,अहमद शाह अफदाली, बाबर एवं उसके कई वंशज आक्रांताओंके का भी शासनकाल अथवा प्रभावयुक्त कालखंड भी सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से भारत के लिए कोई बहुत अच्छा समय नहीं रहा। भिन्न भिन्न आक्रांताओ के शासनकाल में भारत में सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से जरूर कुछ परिवर्तन हुए। कुछ परिवर्तन तो तात्कालिक थे जो समय के साथ ठीक हो गए, लेकिन कुछ स्थाई हो गए। जब तक भारत पर आक्रांताओ का शासन था तब तक हम पर परतंत्रता थी। सन १९४७ की तथाकथित सत्ता के हस्तांतरण के उपरांत शारीरिक परतंत्रता तो एक प्रकार से समाप्त हो गई किंतु मानसिक परतंत्रता से अब भी हम जूझ रहे है। यह अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के लिए जुझारूपन हमारे रक्त में है, जो कभी समाप्त नहीं हो सकता। इसी के कारण हमारी वर्तमान संस्कृति में अधकचरापन आ गया है “न पूरी ताकत से विदेशी हो पाए, न पूरी ताकत से भारतीय हो पाए, हम बीच के हो गए, खिचड़ी हो गए”। एक सबसे बड़ा विकार स्थानीय भाषा एवं बोली के पतन के रूप में आया। हम आसाम में, बंगाल में, गुजरात में, महाराष्ट्र में रहते है वही की बोली बोलते है, लिखते है, समझते है परंतु सब सरकारी कार्य हेतु अंग्रेजी ओढ़नी पड़ती है। यह विदेशीपन, अंग्रेजीपन के कारण और भी भयावह स्थिति का तब निर्माण होता है जब नन्हे नन्हे बालको को कान उमेठ-उमेठ कर अंग्रेजी रटाई जाती है। सरकार के आकड़ो के अनुसार जब प्राथमिक स्तर पर १८ करोड़ भारतीय छात्र विद्यालय में प्रथम कक्षा में प्रवेश लेते है तो अंतिम कक्षा जैसे उच्च शिक्षा जैसे अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग), चिकित्सा (मेडिकल), संचालन (मैनेजमेंट) आदि तक पहुँचते-२ तो १७ करोड़ छात्र/छात्राएं अनुतीर्ण हो जाते है, केवल १ करोड़ उत्तीर्ण हो पाते है। भारत सरकार ने समय समय पर शिक्षा पर शोध एवं अनुसंधान के लिए मुख्यतः तीन आयोग बनाए दौ. सि. कोठारी (दौलत सिंह कोठारी), आचार्य राममूर्ति एवं एक और… सभी का यही मत था की यदि भारत में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा व्यवस्था न हो अपितु शिक्षा स्थानीय एवं मातृभाषा में हो तो यह जो १८ करोड़ छात्र है, सब के सब उत्तीर्ण हो सकते है, उच्चतम स्तर तक।
भारत की संस्कृति प्रशांत महासागर के समान गहरे हृदय वाली है, इसकी सांस्कृतिक अखंडता को बचाने और संस्कृति के संरक्षण हेतु भी जनभाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनना चाहिए। भारतीय भाषाएं अभी भी विदेशी भाषाओं के वर्चस्व के कारण दम तोड़ रही रही हैं। एक समय आएगा जब देश की एक भाषा हिन्दी तो दूर बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की भी हत्या हो चुकी होगी, इसलिए राष्ट्र के तमाम भाषा हितैषियों को भारतीय भाषाओं में समन्वय बना कर हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाना होगा और अंतर्राज्यीय कार्यों को स्थानीय भाषाओं में करना होगा। हिन्दी को इसके वास्तविक स्थान पर स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि इसकी स्वीकार्यता जनभाषा के रूप में हो। यह स्वीकार्यता आंदोलनों या क्रांतियों से नही आने वाली है। इसके लिए हिन्दी को रोजगारपरक भाषा के रूप में विकसित करना होगा क्योंकि भारत विश्व का दूसरा बड़ा बाजार हैं और बाजार मूलक भाषा की स्वीकार्यता सभी जगह आसानी से हो सकती हैं। साथ ही अनुवादों और मानकीकरण के जरिए इसे और समृद्धता और परिपुष्टता की ओर ले जाना होगा।
भारतीय राज्यों में समन्वय होने के साथ-साथ प्रत्येक भाषा को बोलने वाले लोगो के मन में दूसरी भाषा के प्रति भरे हुए गुस्से को समाप्त करना होगा। जैसे द्रविड़ भाषाओं का आर्यभाषा, नाग और कोल भाषाओं से समन्वय स्थापित नहीं हो पाया, उसका कारण भी राजनीति की कलुषित चाल रही, अपने वोटबैंक को सहेजने के चक्कर में नेताओं ने भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ लोगो को भी आपस में मिलने नहीं दिया। इतना बैर दिमाग़ में भर दिया कि एक भाषाई दूसरे भाषाई को अपना निजी शत्रु मानने लग गया, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। राष्ट्र की सांस्कृतिक विखण्डताओं को जब एक ही बात के हल किया जा सकता है, तब भारत के राजनैतिक आकाओं का ध्यान क्यों नहीं जाता, क्या राजनीति भी अर्जुन गाण्डीव धर्म से ही समझते है। क्योंकि भारत है तो अहिंसा प्रधान राष्ट्र पर वे ये क्यों भूल जाते है कि जब-जब राष्ट्र की अखंडता पर विपत्ति आई है तब-तब इसी राष्ट्र में कृष्ण सुदर्शन उठाते है और महाराणा प्रताप और शिवाजी भी पैदा होते है। आज विपत्ति का पहाड़ तो राष्ट्रभाषा हिंदी पर भी आ गई है। नेता भाषा के नाम पर केवल अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेक रहे है, परन्तु वे शायद भूल गए कि इसी भाषा की स्थापना ने राष्ट्र की समस्त सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान पल रहा है। इसी दिशा में भारत के हृदय मध्यप्रदेश के इंदौर से मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम के माध्यम से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में हिन्दी में हस्ताक्षर करने के भाव प्रेरित करना व हिन्दी को रोज़गारमूलक भाषा बनाने का महाअभियान चलाया जा रहा हैं। इसी तारतम्य में राष्ट्रभाषा और राजभाषा के भ्रम को हटाने और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के साथ ही हिंदी के गौरव की स्थापना हो सकेगी और इसी के साथ भारत की सांस्कृतिक अखंडता अक्षुण्ण रहेगी। आओ हिंद के गौरव की पुनर्स्थापना की जाएँ, मिलकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाएँ ।
#डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’
परिचय : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ इन्दौर (म.प्र.) से खबर हलचल न्यूज के सम्पादक हैं, और पत्रकार होने के साथ-साथ शायर और स्तंभकार भी हैं। श्री जैन ने आंचलिक पत्रकारों पर ‘मेरे आंचलिक पत्रकार’ एवं साझा काव्य संग्रह ‘मातृभाषा एक युगमंच’ आदि पुस्तक भी लिखी है। अविचल ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा है। इन्होंने आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता का आधार आंचलिक पत्रकारिता को ही ज़्यादा लिखा है। यह मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील में पले-बढ़े और इंदौर को अपना कर्म क्षेत्र बनाया है। बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (कम्प्यूटर साइंस) करने के बाद एमबीए और एम.जे.की डिग्री हासिल की एवं ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियों’ पर शोध किया है। कई पत्रकार संगठनों में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारियों से नवाज़े जा चुके अर्पण जैन ‘अविचल’ भारत के २१ राज्यों में अपनी टीम का संचालन कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए बनाया गया भारत का पहला सोशल नेटवर्क और पत्रकारिता का विकीपीडिया (www.IndianReporters.com) भी जैन द्वारा ही संचालित किया जा रहा है।लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं।