अंग्रेजी की अराजकता में मातृभाषा कैसे बचाएं?

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rajkumar kumbhaj

भारत के राष्ट्रपति एम वेंकेया नायडू ने अभी दो माह पूर्व दिल्ली स्थित आर. के. पुरम में आन्ध्रप्रदेश एजुकेशन सोसायटी के स्थापना दिवस पर नए भवन का शिलान्यास किया था तब उन्होंने स्कूलों में मातृभाषा को एक अनिवार्य विषय के तौर पर पढ़ायें जाने की सलाह सभी राज्यों को दी थी। उपराष्ट्रपति के मुताबिक व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएँ सीख सकता है, हर भाषा में सांस्कृतिक मूल्य, नैतिकता और परम्पराएं छिपी होती है, किन्तु मातृभाषा की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। अन्य भारतीय भाषाएँ सीखने से देश की एकता व अखंडता मजबूत होती है, लेकिन राज्यों को चाहिए कि वे स्कूलों में मातृभाषा की पढ़ाई को अनिवार्य करें, मातृभाषा  में समझी-समझाई गई कोई भी बात दिल दिमाग की गहराई तक पहुँच जाती है।

“पीपुल्स लिंग्विसटिक सर्वे ऑफ़ इंडिया” के सर्वेक्षण में देश की भाषाओ संबंधित तथ्य सामने रखे गये है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बोली जा रही ७८० भारतीय भाषाओ में से तक़रीबन ४०० भाषाएं अगले पचास बरस में समाप्त हो जाएगी, पिछले पचास बरस में २५० भारतीय भाषाए समाप्त हो चुकी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सबसे ज्यादा खतरा उन भाषाओँ को है, जो आदिवासी समुदायो से जुडी है। जाहिर है कि जब कोई भाषा ख़त्म होती है, तो उसके साथ उस भाषा की संस्कृति और परम्परा भी ख़त्म हो जाती है। इसलिए भी मातृभाषा को बचाने की जरूरत है। मातृभाषा मिट्टी और खून में समाहित है।

देश में कई भाषाए ऐसी है जो हजारो बरस पुरानी है, इनमे मैथिली एक हजार बरस से भी अधिक पुरानी है, लेकिन मैथिली कमजोर हुई है। इसका एकमात्र कारण यही है कि बतौर मातृभाषा मैथिली का दबदबा कुछ कम हुआ है, मौजूदा समय में नए शब्दों के प्रति अस्वीकार्यता से ऐसा हुआ है। भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण के अध्यक्ष गणेश एन देवी के अनुसार मुंबई में भाषा की विविधता इसलिए बढ़ी है कि वहां एकदुसरी भाषा के नए शब्दों के प्रति स्वीकार्यता भी बढ़ी, मुंबई में इस वक्त कम से कम तीन सौ भाषाएँ बोली जाती है, इसका प्रमुख कारण बोलचाल में मातृभाषा बोलने वालों में बढ़ावा देना है। भोजपुरी भाषा भी उनमे से एक है, इस भाषा में बोलचाल से उद्धमिता बढ़ी है। मातृभाषा में बोलचाल से भाषा का सम्मान बढ़ाता है, एक अध्ययन में पाया है कि जो बच्चे घर से बाहर दूसरी भाषा बोलते है और घर परिवार में अपनी मातृभाषा में बात करते है, वे ज्यादा बुद्धिमान होते है। ब्रिटेन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग के शोधकर्ताओ के एक ताजा शोध का निष्कर्ष यही है कि शोधकर्ताओ के इस समूह ने बच्चो की बुद्धिमता (आईक्यू) जाँच में पाया कि मातृभाषा बोलने वाले बच्चे, उन बच्चो के मुकाबले अच्छे अंक लाए जो सिर्फ गैर  मातृभाषा जानते है। इस अध्ययन में ब्रिटेन में रहने वाले तुर्की के सात से ग्यारह बरस के सौ बच्चो को शामिल किया गया था। इस अध्ययन से जाहिर हो जाता है कि घर से बाहर दूसरी भाषा किन्तु घर परिवार में मातृभाषा में की जाने वाली बातचीत बच्चों की बुद्धिमता प्रभावित करती है। मातृभाषा विमुखता से ही संस्कृति विमुखता आती है।

मातृभाषा से विमुखता के एक सीधा-सा अभिप्राय यही है कि पूर्वजो द्वारा स्मृति में संचित ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, अनुभव, संवेदन, शिल्प, साहित्य, संगीत, रचनात्मक और जीवन संस्कार सहित सब कुछ खो बैठना, जिसमें आदमी में अपनापन आता  है। मातृभाषा की स्वीकार्यता दुसरे दर्जे की है जिससे आदमी में अपनापन आता है। मातृभाषा का स्वीकार्य दुसरे दर्जे के निर्मित नहीं है, और न ही यह स्वीकार्यता किसी कुंठित मानसिकता का कारण नहीं होना चाहिए। इधर रोजगार के लिए अंग्रेजी का दबदबा बढ़ाता ही जा रहा है लेकिन कौशल विकास के लिए मातृभाषा से बढ़कर कोई बेहतर विकल्प हो ही नहीं सकता है, इस तथ्य को समझने की जरूरत है।

एक गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ द्वारा जारी की गई सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण भारत के कुल पाँच फीसदी बच्चें ही व्यावसायिक शिक्षा अर्जितकर पा रहे है, जबकि अस्सी फीसदी नौकरियों के लिए कौशल विकास की आवश्कता होती है। इसी सर्वेक्षण से यह भी ज्ञात हुआ है कि १४ से १८ बरस की आयु वर्ग के २५ फीसदी बच्चे अपनी मातृभाषा में लिखी गई किताब पढ़ने में असमर्थ है, जबकि भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण का आंकलन कहता है कि दूसरी भाषाओ में दी गई शिक्षा से बुद्धिमता तो बढ़ती है, लेकिन समझदारी का विकास नहीं हो पाता है। मातृभाषा में पढाई नहीं करने वाले बच्चो का आईक्यू पचास फीसदी ही विकसित हो पाता है, इस समझदारी के अभाव से समाज में असंतुलित मानसिकता के साथ है साथ ही हिंसा के खतरे भी बढ़ते है।

इसलिए बेहद जरूरी हो जाता है कि शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषा के महत्व को खासतौर से समझते हुए शिक्षण को मातृभाषा से जोड़ा जाना चाहिए, हमारे उपराष्ट्रपति एम. वेंकेया नायडू का आशय भी यही है कि स्कूलों में मातृभाषा की पढाई को अनिवार्य किया जाए। इस सबके बीच जो एक सब से बड़ी सकारात्मक सम्भावना दिखाई दे रहे है, वह यही हो सकता है कि मातृभाषा में पढाई अनिवार्यता से हिंसा और अपराध  की दुनिया पर थोडा बहुत अंकुश लग सकता है। लोक जीवन की प्रयोगशीलता किसी भी भाषा के लिए प्राणवायु का काम करती है। लोक जीवन से आने वाले नए-नए शब्दों से भाषा समृद्ध होती है। लेकिन भावनात्मक संतुलन के लिए जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका मातृभाषा की होती है इसलिए मातृभाषा की अनदेखी नहीं की जाना चाहिए। उसे अनिवार्य शिक्षा से जोड़े जाने की जरूरत है। लोक जीवन में यह लोकोक्तियां सदियों से चली आ रही है कि कोस-कोस पर पानी बदले, नौ कोस पर वानी, भाषा के इस मौलिक बदलाव के बाबद बरसों पूर्व ही अध्ययन कर लिया गया था, भाषा में परिवर्तन की अवधारणा कोई नई चीज नहीं है, बल्कि यह तो स्वाभविक और प्राकृतिक स्थिति है। एक लोक प्रचलित तथ्य यह भी है कि क्षेत्रिय बोलियों और पड़ोसी राज्य की भाषाओ से अंगीकार किये गये शब्द भाषा की सहजता और प्रवाहमयता बढ़ाते है। इस संदर्भ में गुजरात,महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश से सटे निकटम क्षेत्रों की मातृभाषाओं में जिस भाषा बोली का इस्तेमाल किया जाता है, उसमे गुजराती, मराठी और मालवी सहित राजस्थानी शब्द प्रचुरता से प्रयुक्त किए जाते है, किन्तु खेद का विषय है कि औपनिवेशिक गुलामी के दौर ने हमे अंग्रेजी की परतंत्रता में धकेल कर हमारे समस्त भाषाई संस्कार नष्ट-भ्रष्ट कर दिए है।

भारत की तरह ही अफ्रीका देश भी लम्बे समय से औपनिवेशिक दस्ता के शिकार रहे है। औपनिवेशिक शक्तियों ने जिस तरह भारतीय भाषाओ को नष्ट-भ्रष्ट किया, ठीक उसी तरह से उन्होंने अफ़्रीकी भाषाओ को भी तहस-नहस किया है। लेकिन यह जानकर प्रसन्नता होती है कि वहा नगुगी वा थियों जैसे विचारक हुए जिन्होंने भाषाई तबाही की इस औपनिवेशिक साजिश को सूक्ष्मता से पहचाना और आवाज़ उठाई। नगुगी वा थियों का खास विरोध अफ़्रीकी भाषाओ का दमन करने वाली अंग्रेजी से था। अपनी क्षुब्धता दर्शाता हुए उन्होंने तो यह तक कह दिया था कि अफ्रीका में अंग्रेजी विभागों को बंदकर देना चाहिए। गौर किया जा सकता है कि नगुगी वा थियों का यह कथन कितना वजनदार है कि मातृभाषा का आग्रह कोई अंग्रेजी की प्रतिक्रिया में नहीं है बल्कि यह तो औपनिवेशिक लुट के विरुद्ध एक सकारात्मक हस्तक्षेप है। क्या भारत में ऐसी कोई आवाज़ उठाई जा सकता है?

हमने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी अपनी शिक्षा के लिए एक विदेश भाषा का चयन किया और भारतीय भाषाओ को हीन  भाव से देखते रहें। अंग्रेज हमें यह समझाने में हद दर्जे तक सफल रहे कि भारतीय भाषाए और खासतोर से मातृभाषाएँ तो बौद्धिक संस्कार अर्जितकर पाने के लायक नहीं है। वे यह भी समझाने में सफलता पा गये कि मातृभाषा में रचनात्मकता का अभाव है। इस तरह हम एक भाषाईहीनता बोध से ग्रस्त समाज में तब्दील होते गए। मातृभाषाओं में उपलब्ध पारम्परिक ज्ञान की उपेक्षा से मौलिक सृजन प्रभावित हुआ और मातृभाषाओ की नागरिकता समाप्त होती गई जिससे भाषाई लोकतंत्र संकुचन की ओर बढ़ता गया। दुनिया और जीवन की तमाम जटिलतायें मातृभाषा में आसानी से समझी और सुलझाई जा सकती है, लेकिन मातृभाषाओँ की शुन्यता ने हमे भाषा शून्य बना दिया और भाषा शून्यता ने ज्ञान शून्य।

#राजकुमार कुम्भज 
सम्पर्क: इंदौर
१२ फरवरी १९४७ को मध्यप्रदेश में ही जन्में राजकुमार कुम्भज सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा चौथे सप्तक में शामिल कवियों में रहे है

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।