मोरिशस में जो हुआ, वह 11 वां विश्व हिंदी सम्मेलन था। वह तीन दिन चला। 18, 19 और 20 अगस्त ! लेकन उसे महत्व कैसा मिला? जैसा कि किसी गांव या छोटे शहर की गोष्ठी-जैसा! क्यों? सरकारी लोग इसका कारण अटलजी को बताते हैं। उनका कहना है कि अटलजी के अवसान के कारण देश ने उस सम्मेलन पर कोई ध्यान नहीं दिया। सारे अखबार और टीवी चैनलों पर अटलजी ही अटलजी दिखाई पड़ रहे थे।
यह सच है लेकिन उसी दौरान पाकिस्तान में इमरान खान की शपथ भी हुई। उस पर सारे अखबार और चैनल क्यों टूट पड़े ? क्या हमारा विश्व हिंदी सम्मेलन इतना गया-बीता है कि उस पर हिंदी अखबारों और चैनलों ने भी अपनी आंखें फेर लीं? कुछ हिंदी अखबारों में थोड़ी-बहुत खबर छपी, वह भी उल्टी-सीधी। आज मैंने इंटरनेट पर तलाश की तो पता चला कि मोरिशस में घोर अव्यवस्था रही। जो लोग भी गए थे, उन्होंने बड़ा अपमानित महसूस किया। जिन पोस्टरों का बड़ा प्रचार किया गया था, उन पर अज्ञेयजी और नीरजजी जैसे प्रसिद्ध कवियों के नाम ही गलत-सलत लिखे गए थे।
कुछ मित्रों ने मोरिशस से फोन करके बताया कि सिर्फ दक्षिणपंथी साहित्यकारों का वहां जमावड़ा था। दक्षिणपंथियों याने भाजपाई और संघी साहित्यकार! देश के अनेक मूर्धन्य साहित्यकारों, हिंदीसेवियों और हिंदी पत्रकारों को निमंत्रण तक नहीं भेजे गए। मैंने जब भी हिंदी के लिए देश में कोई आंदोलन चलाया, हमेशा सभी राजनीतिक दलों और सभी हिंदीप्रेमियों का सहयोग लिया। भोपाल का 10 वां और मोरिशस का यह 11 वां सम्मेलन भाजपा सरकार ने आयोजित किया लेकिन अन्य सरकारों द्वारा आयेाजित सम्मेलनों- जैसा सर्वसमावेशी चरित्र इस सम्मेलन का नहीं रहा।
इसका दोष विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को देना उचित नहीं है। सुषमा-जैसे हिंदीप्रेमी इस सरकार में कितने हैं ? वे हिंदी की विलक्षण वक्ता हैं। वे मेरे साथ अनेक हिंदी-आंदोलनों में कंधा से कंधा मिलाकर काम करती रही हैं। वे स्वयं वर्तमान सरकार की संकीर्ण और अहमन्य संस्कृति की शिकार हैं। उन्हें कोई स्वतंत्र विदेश मंत्री की तरह काम करने दे, तब तो वे कुछ करके दिखाएं। डर के मारे सारे मंत्री जी-हुजूरी में लगे हैं।
43 साल से चल रहा यह विश्व हिंदी सम्मेलन शुद्ध रुप से विश्व हिंदी पिकनिक बन गया है। इस पर संघ और भाजपा या जनसंघ की हिंदी नीति का कोई असर कहीं दिखाई नहीं पड़ता। गैर-भाजपाई सरकारें इसे कम से कम सर्वसमावेशी पिकनिक का रुप तो दे देती थीं। प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन (नागपुर, 1975) में जो प्रस्ताव पारित हुए थे, वे आज तक लागू नहीं हुए हैं। देखें, अगली सरकार क्या करती है ?
#डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक परिचय: डॉ. वेदप्रताप वैदिक हिन्दी के वरिष्ट पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, पटु वक्ता एवं हिन्दी प्रेमी हैं। उनका जन्म एवं आरम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश के इन्दौर नगर में हुई। हिन्दी को भारत और विश्व मंच पर स्थापित करने के की दिशा में सदा प्रयत्नशील रहते हैं।
डॉ. वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। वे सदैव प्रथम श्रेणी के छात्र रहे। दर्शन और राजनीतिशास्त्र उनके मुख्य विषय थे। अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय से पी-एच.डी. किया। चार साल तक उन्होंने दिल्ली में राजनीति शास्त्र का अध्यापन भी किया।
अपने अफ़गानिस्तान संबंधी शोधकार्य के दौरान श्री वैदिक को न्यूयार्क के कोलम्बिया विश्व विद्यालय, लंदन के प्राच्य विद्या संस्थान, मास्को की विज्ञान अकादमी और काबुल विश्व विद्यालय में अध्ययन का विशेष अवसर मिला। अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञों में उनका स्थान महत्वपूर्ण है। उन्होंने लगभग पचास देशों की यात्रा की है। वे संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी, रूसी और अंग्रेजी के जानकार हैं। वे अपने मौलिक चिन्तन और प्रभावशाली वक्तृत्व के लिए विख्यात हैं।
अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युगारंभ करनेवालों में डॉ. वैदिक का नाम अग्रणी है। १९५८ में प्रूफ रीडर के तौर पर वे पत्रकारिता में आये। वे १२ वर्ष तक “नवभारत टाइम्स” में रहे,पहले सहसम्पादक और फिर सम्पादक (विचार) के पद पर। आजकल वे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की हिन्दी समाचार समिति “भाषा” के सम्पादक हैं।