लेख उनकी मृत्यु से पूर्व लिखा था
#राजेश बादल
उस दिन दिल्ली में एक होटल के कमरे में नीरज से दो ढाई घंटे की गपशप हुई ,लेकिन जी नहीं भरा । न मुझे संतोष हुआ और न नीरज को । बोले ,कई साल बाद इस तरह दिल की परतें खुलीं हैं । अलीगढ़ आने का कार्यक्रम बनाओ । फिर इत्मीनान से बातें होंगीं । इसके बाद एक दिन सुबह सुबह मैं अलीगढ जा पहुंचा । नवासी साल का नौजवान टोपा लगाए धूप सेंकते हुए अखबार पढ़ रहा था । मुझे देखा तो चेहरा बच्चों जैसा खिल गया । बढ़िया देसी चाय । कप प्लेट में । बोले ,कोई सामान नहीं है तुम्हारे संग । मैं कुछ उत्तर देता -खुद ही गुनगुनाने लगे,
जितना कम सामान रहेगा,
उतना सफ़र आसान रहेगा ।
मैंने भी तुरंत सवाल दागा ,सारी उमर सफ़र करने वाला मुसाफ़िर अब सामान की चिंता कर रहा है ? बोले ,’ सच्चाई तो यही है राजेश बाबू ! ये सामान साथ न जाएगा । फिर बोझ क्यों ढोना । मैंने कहा ,अब क्या रिश्ते भी बोझ हैं ? नीरज जी बोले – कहूँगा तो सबको बुरा लगेगा । रिश्ते मेरा बोझ नहीं हैं बल्कि रिश्तों पर मैं बोझ बन गया हूँ । अब ऊपर वाले का बुलावा आए बिना तो जाऊँगा नहीं । और जब जाऊँगा तो धीरे धीरे मिट्टी हो रहा ये शरीर ही तो जाएगा । सबके लिए कर दिया । जितनी सामर्थ्य थी ,उससे कहीं ज़्यादा कर दिया ।मेरा बोझ किसने ढोया ? मुझे तो माँ की आँचल और पिता की छाँव भी न मिली । क्या कहूँ ? सोचता हूँ तो पिता का चेहरा भी साफ़ साफ़ यादों में दिखाई नहीं देता ।क्या इस के लिए पिता मुझे माफ़ करेंगे ? फिर खुद ही अपने दोहे गुनगुनाने लगे –
बाहर कोलाहल बहुत,भीतर मौन असीम जीवन के इस द्वन्द्व को समझे कौन हक़ीम / और
श्वेत श्याम दो रंग के ,चूहे हैं दिन रात /तन की चादर कुतरते ,पल पल रहकर साथ /
बोझ सांस है,तन नहीं,इसे समझलो खूब मुर्दा जल में तैरता ,ज़िंदा जाता डूब /
कुछ देर तक सन्नाटा । मन उदास हो चला ।दोनों थोड़ी देर चुप बैठे रहे । मैंने उनकी आँखों में एक दो बार झाँकने की कोशिश की । वो छलछलाने को होतीं और नीरज उन्हें भीतर धकेल देते । मेरे सामने नीरज की ज़िंदगी का एक एक पन्ना फड़फड़ाने लगा ।उस किताब का ,जो उन्होंने होटल के कमरे में खोल कर रख दी थी ।
आज का नीरज कैसा है ? अस्सी साल से अपने गीतों और गले से दुनिया को दीवाना बनाने वाले इस यायावर की किताब को किसने पढ़ा ? पीढ़ियां आतीं रहीं और जातीं रहीं । नीरज उनके दिल में बसते रहे । नीरज के दिल की बस्ती कितनी वीरान थी , शायद ही कोई जानता हो । चाहने वालों को लगता था कि नीरज के इर्द गिर्द प्रेम लुटाने वालों का तांता लगा हुआ है मगर नीरज ही सच्चाई जानते हैं । डूबकर ,तड़प कर,प्रेमगीत लिखने वाले नीरज को सबने अपनी साँसों में धड़कता हुआ पाया लेकिन अपने बारे में आज नीरज कहते हैं –
क्या बतलाएं किस तरह ,गुजरी उम्र तमाम
सदा लुटेरे गाँव में ,हुई हमारी शाम
और तन चाहे वैराग्य को ,मन चाहे अनुराग
दो पाटों में पिस रहे,हम कैसे -हत भाग्य
इसके बाद भी आज के नीरज को ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं है । दुनिया पैसे के पीछे भाग रही है । पचास -साठ के दरम्यान जब दौलत और शौहरत उनके क़दम चूम रही थी । माया नगरी मुंबई उन्हें बार बार पलकों पर बिठाए हुए थी तो नीरज उस दौलत को हाथ का मैल समझ ठुकरा कर चले आए । राजकपूर उन्हें मनाते ही रह गए ,उन्होंने मायानगरी का दुबारा मुंह न देखा । कभी जिन गीतों को लिखने पर उन्हें पच्चीस -पचास रूपए मिलते थे ,आज उन्हीं गीतों की रॉयल्टी लाखों रूपए में आ रही है । इसे आप क्या कहेंगे ? पैसे से मोह की आखिर कोई वजह भी तो हो । वो क्या कहते हैं अपनी इस वृति पर –
धन से उत्तम ज्ञान है ,कारण बस ये जान /धन की रक्षा हम करें ,रक्षे हमको ज्ञान । और
धन दौलत की प्यास तो कभी नहीं बुझ पाए /जितना इसे बुझाइए ,उतनी बढ़ती जाए /
आज नीरज के पास अपने सफ़रनामें पर सोचने के लिए बहुत वक़्त है । देह थकने लगी है लेकिन दिमाग पूरी तरह सचेत है ।वो जीवन के आख़िरी पड़ाव पर हैं , लेकिन देश और समाज के सरोकारों पर खामोश नहीं । साम्प्रदायिकता भरा सोच और राजनीति में उसकी घुसपैठ नीरज को परेशान कर देती है । राजनीतिक हाल से नाउम्मीद नहीं लेकिन बहुत खुश भी नहीं ।सुबह सुबह अखबार पढ़ते हुए वो अक्सर अपने आप से बातें करने लगते हैं –
संसद ने पारित किया,ये क़ानून अजीब / जुगनू बने अमीर सब, सूरज हुआ गरीब
और
राजनीति लेकर हमें पहुँची है उस गाँव , सर सबके नीचे यहाँ /ऊपर सबके पांव ।
अलीगढ़ के अपने घर में नीरज को जो सुकून मिलता है ,वो कहीं और नहीं । कहीं भी जाएं ,लौट के जल्द से जल्द अपने इस घर में आ जाएं तो बेहतर । कुछ दोस्त हैं ,जो शाम ढलते ही आ जाते हैं । आज से नहीं -तीस चालीस साल से यही उनका रूटीन है । शाम को रम और रमी की महफ़िल जमती है । रमी तो बहाना है । वास्तव में सारे दोस्त उनका दिन भर का दर्शन सुनना चाहते हैं । वो कहते हैं ,’नीरज जो आज सोचते हैं ,वो दुनिया भर से ग़ुम होती जा रही इंसानियत और उससे होने वाले खतरों पर है । क़रीब क़रीब नब्बे साल का हो रहा एक इंसान आज भी कविता के मंच पर अपनी इज़हार करता है । दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण हो तो बताओ । बहत्तर साल से मंच पर । कभी गुमनामी में खोए नहीं ,कभी लोगों ने भुलाया नहीं और जहाँ भी बैठे हों ,लोग फुसफुसाने लगते हैं -अरे ये तो नीरज हैं । और जब माइक पर उनकी आवाज़ गूंजती है –
कितने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में सदियाँ लगजाएँगी तुमको हमें भुलाने में।
तो सुनने वालों का दिल भर आता है । साठ साल पहले जब उन्होंने अपना कोहिनूर गीत कारवां गुज़र गया ,गुबार देखते रहे रचा था तब भी लोग उसे सुनकर भाव विह्वल हो जाते थे । उनके गीतों में जो दर्शन है इस देश के किसी दूसरे गीतकार में नहीं ।रमी की महफ़िल में नीरज अपने इस दर्शन को कब गीतों की शक़ल दे देते हैं ,पता ही नहीं चलता ,हाथ के पत्ते हाथ में रह जाते हैं और नीरज का स्वर शाम के रंग को और गाढ़ा कर देता है । पड़ोसियों के घर में भी हरकत थम जाती है अगर नीरज का स्वर कानों में सुनाई दे जाए तो । और ऐसा हो भी क्यों न ? आज के दौर में कौन इस बात की चिंता करता है कि
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए /जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए ।
जिसकी खुशबू से महक जाए पड़ोसी का घर /फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए ।
मेरे दुःख दर्द का तुझ पे हो असर कुछ ऐसा / मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी भी न खाया जाए ।
रात घनी हो रही है । दोस्तों की महफ़िल बर्खास्त हो चुकी है । रात की ब्यारी में दो फुल्के और सादा दाल या फिर दलिया काफी है । बीते दिनों एक ऑपरेशन के बाद चलने में कुछ तकलीफ होती है । वाकर का सहारा लेना पड़ता है । मैं भी उन्हें अब सोने देना चाहता हूँ । कहते हैं वर्षों बाद दिन भर इस तरह किसी के साथ रहा हूँ । मैं शुभ रात्रि कहना चाहता हूँ ,पर वो दो मिनट के लिए रोक लेते हैं । कहते हैं ,साठ बरस पहले एक मृत्युगीत लिखा था । इसे सुन सुन कर लोग रोया करते थे । दुःख और अवसाद में डुबो देने वाला अपना ये गीत कुछ दिनों से रोज़ रात को याद आता है । कवि सम्मेलनों में अक्सर कवियों से गीत सुनाने की फरमाइश की जाती है लेकिन अनेक शहरों में आयोजक मुझसे प्रार्थना करते थे कि वो इतना दर्द भरा मृत्युगीत न सुनाएं । सैकड़ों लोग कई कई दिन इसे सुन कर सो नहीं पाते थे । मगर मुझे तो हर रात ये गीत याद आता है और सुला कर चला जाता है । हाँ ये ज़रूर सोचता हूँ कि हो सकता है ,ये रात मुझे हमेशा के लिए सुला दे । और फिर वो पूछते हैं ,इतना दर्द भरा गीत इस घनी रात में सुनना चाहोगे या फिर नींद प्यारी है । मैं उत्तर देता हूँ ,’मैं अपनी आख़िरी सांस तक आपको गाते हुए सुनना चाहता हूँ । आप बेहिचक सुनाएं और फिर नीरज गुनगुनाते हैं
अब शीघ्र करो तैयारी मेरे जाने की ।
रथ जाने को तैयार खड़ा मेरा ।
है मंज़िल मेरी दूर बहुत,पथ दुर्गम है ।
हर एक दिशा पर डाला है तम ने डेरा।
कल तक तो मैंने गीत मिलन के गाए थे।
पर आज विदा का अंतिम गीत सुनाऊंगा ।
कल तक आंसू से मोल दिया जग जीवन का।
अब आज लहू से बाक़ी क़र्ज़ चुकाऊंगा ।
बेकार बहाना ,टालमटोल व्यर्थ सारी ।
आ गया समय जाने का -जाना ही होगा ।
तुम चाहे कितना चीखो चिल्लाओ ,रोओ ।
पर मुझको डेरा आज उठाना ही होगा ।
देखो लिपटी है राख चिता की पैरों पर।
अंगार बना जलता है रोम रोम मेरा ।
है चिता सदृश्य धू धू करती ये देह सबल।
है क़फ़न बंधा सर पर,सुधि को तम ने घेरा।
जब लाश चिता पर मेरी रखी जाएगी ।
अंजानी आँखें भी दो अश्रु गिराएंगीं ।
पर दो दिन के ही बाद यहाँ इस दुनिया में ।
रे याद किसी को मेरी कभी न आएगी ।
लो चला ,संभालो तुम सब अपना साज़ बाज़ ।
दुनिया वालों से प्यार हमारा कह देना ।
भूले से कभी अगर मेरी सुधि आ जाए ।
तो पड़ा धूल में कोई फूल उठा लेना ।
गीत बहुत लंबा है । मेरी याद में सिर्फ यही पंक्तियाँ बाक़ी रह गईं हैं ।
आवाज़ मद्धम पड़ती जा रही है । गीतों का सम्राट सो चुका है । मैं लाश की तरह देह को अपने पर लादे चल पड़ता हूँ। बड़ा बहादुर बनता था । चला था -मृत्युगीत सुनने । उस दिन से रोज़ रात बिस्तर पर ये गीत मुझे झिंझोड़ देता है , सोता हूँ,जागता हूँ ,रोता हूँ ,सुबह हो जाती है । रात चली जाती है। मृत्युगीत मेरी देह से,मेरी आत्मा से चिपक गया है ।
नीरज जी को श्रद्धांजलि.
मेरी उम्र ८-९ वर्ष रही होगी. आकाश वाणी पर कवि सम्मलेन में उनका अविस्मरणीय गीत सुना था–“स्वप्न झरे फूल से”. आज तक याद है.
करीब ४ वर्ष पहले अलीगढ़ में एक पुस्तक विमोचन समारोह में उनके दर्शन हुए. काफ़ी कमजोर लग रहे थे.
हिन्दी साहित्य और फिल्म जगत, दोनों में उनका नाम रहेगा.
–ख़लिश
अभी पिछले ही साल उनके नगर इटावा में एक सांगीतिक कार्यक्रम
प्रस्तुत किया, जहाँ हम उनकी उपस्थिति की प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन
वे न आ पाए| तब मैंने उनके लिखे गीतों की लड़ी गवा कर प्रेक्षकों का
संतोष बटोरा|
सर्वशक्तिमान उनकी आत्मा को शांति दे|
भवदीय
हरीश भिमानी
माननीय संपादक जी ,
श्री गोपालदास नीरज के निधन का अत्यधिक क्षोभ हुआ। २००९ में उनके कर कमलों से लखनऊ में मुझे सम्मान प्राप्ति हुई थी। उनका एक भव्य चित्र मुझे सम्मानपत्र देते हुए मेरे मुख्य कमरे में सुशोभित है जिसे मैं रोज प्रणाम करती हूँ। सरस्वती के वरद पुत्र नीरज जी हम सबकी प्रेरणा रहे हैं।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे ! हिंदी का प्रयोग करके हम उनके गौरव को बढ़ाते रहें। मैं भाग्यशाली हूँ जिसे उनके दर्शन व आशीर्वाद का अवसर मिला।