चलन

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asha gupta
कहूँ क्या बात मैं चलन की
कुरीतियों से   हुयी जकड़ी
भारत के अनेक रहन  की
कई   दुखद विचारों   की
मानसिकता है अगन  सी
साक्षरता कहीं किताबी सी
भेद करते लोग बेहिसाबी सी
लिंग तय करता पुरुष  भ्रूण
कोसते स्त्री कोख खराबी की
क्या करूं मैं बात चलन की
दहेज़ भी चलती चलन  की
कई बलियाँ चढ़ती दुल्हन की
प्रथाओं के नाम शोषण  भी
जीवन बन जाता मानों जहर पी
क्या करूँ मैं बात चलन की
तोड़ने को क्रूर मानसिकता
सही शिक्षा है आवश्यकता
वैसे तो टूटते बेकार रहन भी
आवाज उठने लगी बहन की
क्या करूं मैं बात चलन की
प्रगति के दौर में हैं हमसभी
पुरुष भी जकड़े   हैं    कहीं
वर्तमान नेट युग की   गति
गलत इस्तेमाल बिगाड़ती कहीं
क्या करूं मैं बात चलन की
झूठ अत्याचार छल रिश्वतखोरी
समाज में चलन घोर पकड़ी
उत्तम तर्क सोच जरुरत सही
टुकड़े टुकड़े बंटते हुये रिश्ते
क्या करूं बात मैं बात
चलन की
खोता रोता कई बचपन भी
दिशाहीन कुछ युवा सा मन
प्रगति संग ये विकार  कहीं
डुबाती स्वप्न सुंदर खरी भी
क्या करूँ बात मैं चलन की
साथ मिलाओ कदम साथियों
जाना है दूर मंजिल पास नही
बेकार चलनों को त्यागो अभी
धरती आकाश संवारों तो सही
सुंदर जीवन उत्तम चलन की
                  # डॉ आशागुप्ता”श्रेया” 

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