पुस्तक समीक्षा……………….
किसी भी विधा में लेखन हो उसका भावनाओं से गहरा सम्बंध होता है फिर यहां तो सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह – कहाँ हो तुम की लेखिका का नाम ही भावना है ! उनकी विविध भावनाओं की अभिव्यक्ति ही इस संग्रह को सार्थकता , पठनीय और अपने पुस्तकालय में सुरक्षित रखने को बाध्य करती है ।
87 रचनाओं के इस काव्य संग्रह को – ” त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ” जैसे अनुकरणीय समर्पण के साथ वे स्वयं कहती हैं – मेरी रचना ही मेरा आईना है ।
पूर्णतः सहमत हूँ मैं भावना जी के इस कथन से क्योंकि मै सदा से ही यह मानता आया हूँ कि – हमारा लेखन ही हमारे व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचायक होता है । भावना जी इसमें खरी उतरती हैं । एक बात और मै हमेशा दोहराता भी हूँ और रचनाकारों से यह अपेक्षा भी रखता हूँ – हमारा लेखन सकारात्मक हो , यथार्थ आधारित हो ताकि पाठकों में , समाज में व्याप्त नैराश्य का भाव हट सके । यही कारण है कि साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। लेखन करते समय इसे आत्मसात करना चाहिए।
इस संग्रह में मुझे लेखिका का आत्मकथ्य देखने को नही मिला मगर अंतिम पेज पर छपी उनकी कविता को ही उनका आत्मकथ्य मान रहा हूँ । हर पाठक अपने हिसाब से इसका अलग अलग अर्थ निकालेंगे पर मेरे लिए यह रचना उस नियंता को समर्पित है , जिसके बिना हमारा पूर्ण होना या अपने जीवन को सफल मानना बेमानी ही होता है । वे स्वयं कहती हैं –
प्रगाढ़ मौन के हाथों में तराशी गई
तेरी प्रतिमा में झलकते हैं
मेरी ख्वाहिशों के रंग
और अंत में कहती हैं –
तुम्हारे बगैर हमारा पूर्ण होना
कहाँ है सम्भव ?
पढ़ें और विचार करें क्या यह हकीकत नहीं है।
भावना जी की हर रचना प्रभावित करती हैं । लगता है जैसे उन्हें पढ़ते हुए हम भी एक अलग दुनिया में पहुंच जाते हैं । जहाँ हमारे मन को सुकून देने वाले हर भाव मौजूद होते हैं ।
संग्रह के आमुख में रस्तोगी जी ने सही लिखा है – आस्था और विश्वास ही प्रेम का परम तत्त्व है। यह भावना जी की कविताओं में साफ तौर पर नजर आता है । मैं भी मानता हूँ – प्रेम को व्याख्यायित नही किया जा सकता दरअसल वह हमारे ही अंदर मौजूद होता है और इसी आधार पर सारी सृष्टि संचालित है। यही कारण है कि भावना जी की कविताओं को लौकिक होते हुए भी पारलौकिक कहा जा सकता है।
मैं फिर कह रहा हूँ भावना जी के इस संग्रह की हर रचना आपको यह एहसास कराएगी कि आपने वाकई वही पढ़ा जो आप हमेशा से पढ़ना चाहते रहे हैं ।
विश्वगाथा प्रकाशन , सुरेंद्र नगर , गुजरात का यह उत्कृष्ट प्रकाशन है ।
संग्रह के सम्पादन और मुद्रण की गुणवत्ता से समझौता न करना भी इसे महत्वपूर्ण बनाता है। लेखिका भावना भट्ट जी के साथ विश्वगाथा प्रकाशन के श्री पंकज त्रिवेदी जी के अप्रत्यक्ष ही सही परअकथनीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता ।
उन सभी साहित्यिक मित्रों से मेरा यह आग्रह है – साहित्य लेखन के प्रोत्साहन और उसकी अभिवृद्धि के लिए मात्र एक सौ पचास रुपए भेजकर इसे अपने पुस्तकालय में संजोना चाहिए।
#देवेन्द्र सोनी
इटारसी ( मध्यप्रदेश )