इस मंच के माध्यम से मैं हिन्दी संबंधी अपनी चिन्ताओं से सभी को अवगत कराना चाहता हूँ। हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या उसके प्रति ममत्व अथवा अपनत्व की है।लखनऊ के अखबार में एक ९२ वर्षीया वृद्धा की खबर थी, जो जानकीपुरम(लखनऊ) के वृद्धाश्रम में मरणासन्न अवस्था में पड़ी हैं। उनके तीन बेटे हैं। तीनों इतने सक्षम हैं कि,माँ का खयाल रख सकें किन्तु फोन करने पर तीनों ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए कि-हमसे कोई मतलब नहींl यही स्थिति हिन्दी की है। आधा भारतवर्ष हिन्दी के बेटों-बेटियों से भरा पड़ा है। दुनिया के शताधिक देशों में हिन्दी और उसकी सहोदर भाषाओं के बोलनेवाले बहुत अच्छी दशा में जीवन-यापन कर रहे हैं,किन्तु उन्होंने हिन्दी से पल्ला झाड़ लिया है। हिन्दी को अपनी अस्मिता और अपनी पहचान मानने वाले लोगों की संख्या कितनी है ? फिल्मों की बात न करें,तो बेहतर। वहाँ केवल व्यवसाय होता है। कोई फिल्म वाला हिन्दी-प्रेमी नहीं!
हिन्दी के नाम पर पर्यटन खूब हो रहा है। हिन्दी के नाम पर निरीक्षण और चन्दा-उगाही भी खूब होती है,किन्तु हिन्दी की वास्तविक चिन्ताओं से कोई बावस्ता है-ऐसा हमें तो नहीं लगता। लखनऊ के अखबार लिखते हैं कि प्रदेश में ५००० प्राथमिक विद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने की व्यवस्था की जाएगी। न जाने क्यों हमारे शिक्षाविदों,नेताओं और देश के छद्म चिन्तकों को लगता है कि,अंग्रेजी माध्यम से पढ़े बच्चे अधिक प्रबुद्ध,चैतन्य और होशियार होंगे। अंग्रेजी पढ़ा-लिखा आदमी केवल एक दृष्टि से बाकियों से अलग होता है-आत्मविश्वास। अंग्रेजी उनकी बत्ती जलाती है,हिन्दी वह बत्ती नहीं जला पाती।
जो अंग्रेजी बोलने लगता है,आसपास के लोग उससे आतंकित हो जाते हैं। व्यावहारिक जीवन की समझ तो गंवई-गाँव और ठेठ देसी भाषा बोलने वालों में ही अधिक होती है,इसमें कोई संदेह नहीं है। अंग्रेजी पढ़ा-लिखा आदमी अधिक योग्य होता है,इस मिथ को हम हिन्दी वाले बदलते क्यों नहीं ? हम तो उसका पोषण किए जाते हैं ! क्या हिन्दी अथवा हिन्दीतर भाषाओं में पढ़नेवाले छात्र प्रज्ञावान नहीं होते ? यदि होते हैं तो अंग्रेजी के लिए इतना व्यामोह क्यों ?
होना यह चाहिए कि हिन्दी-भाषी छात्र अपनी वेशभूषा,उठने-बैठने,बोलने-चालने और ज्ञान के मामले में उतनी ही चमक-दमक से पेश आएँ,जितनी चमक-दमक से अंग्रेजी वाले पेश आते हैं। गाँव का हिन्दी-भाषी गबरू जवान किस मामले में शहरी बाबू से उन्नीस होता है,तो फिर यह हीनता-बोध क्यों ? यह हीनता-बोध हमारा यानी हिन्दी-सेवियों का दिया हुआ है। हिन्दी शिक्षक अपने-अपने स्कूलों में ऐसे दीन-हीन बने रहते हैं कि,उन्हें देखकर क्षोभ होता है। लटक-लटक कर बात करेंगे। हिन्दी के अलावा उन्हें और कुछ पता ही नहीं होता। और सच कहें तो उनकी हिन्दी भी सर्वथा दोष-मुक्त नहीं होती,उच्चारण-दोष तो प्रायः होता है। सबसे पहले तो ऐसे शिक्षकों को स्वाध्याय करना चाहिए और केवल हिन्दी नहीं,बल्कि अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में खुद को पारंगत बनाना चाहिए।
मुझे याद है जब मैं आंध्रा बैंक(गुंटूर-आंध्रप्रदेश) में कार्यरत था,तो मैंने कुछ ही दिन में तेलुगु सीख ली। वहाँ के लोगों से घुल-मिल गया और खेल-कूद आदि प्रतियोगिताओं में प्रतिभागिता करके उनसे पूरी तरह तादात्म्य स्थापित कर लिया। यदि दुनिया का सारा ज्ञान,सारी कलाएँ,सारी सामाजिक चिन्ताएं,सारी विचार-धाराएं अल्पांश में भी हमारी भाषा का कलेवर पाकर अभिव्यक्त हो जाएं,हम अपनी भाषाओं में अंग्रेजी के समानांतर विमर्श प्रस्तुत करने में समर्थ हो जाएं तो कोई कारण नहीं कि,हमें अंग्रेजी अथवा विश्व की किसी भी भाषा के सामने गर्दन झुकानी पड़े।
हिन्दी वालों का पराभव-बोध ही हिन्दी को सबसे अधिक क्षति पहुँचा रहा है। दूसरी समस्या है अपने-आप को सर्वथा सुरक्षित समझने की,बिल्ली दिख जाने पर कबूतर बन जाने की। आसन्न संकट का आभास न होने और `हम जैसे हैं,वैसे ही ठीक हैं` के भाव से ग्रस्त होने के कारण हिन्दी भाषा,शब्दावली और वर्णमाला में जो समयोचित सुधार होने चाहिए,उनकी ओर हमारे मनीषियों का ध्यान नहीं जाता। सरकारी तंत्र से जुड़े अधिकतर व्यक्तियों को हिन्दी के भाषा-वैज्ञानिक स्वरूप की न कोई समझ है,न चिन्ता। वे तो सरलता-सरलता की माला जपते हैं। सरलता ला देने मात्र से हिन्दी लोकप्रिय नहीं होगी। अंग्रेजी भी सरल नहीं है,किन्तु लोकप्रिय है।
मेरा मत है कि,उपर्युक्त सभी विषयों और हिन्दी एवं हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के पुनरुत्थान के मुद्दे पर देशव्यापी चिन्तन-शिविर होने चाहिए। यह पहल हम और आप जैसे प्रबुद्ध हिन्दी-सेवी ही कर सकते हैं।
#आर.वी.सिंह