प्रभु जी…तेरे खेल निराले 

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anupam
बूँद बने कब मोती…मुक्ता..कब गज भाल सजा ले,
कब कोई क्या खो दे जग में..कब कोई क्या पा ले।
प्रभु जी…तेरे  खेल  निराले…॥
कब हो जाए…रंगभवन में..दुख का  करुणित क्रंदन,
कब जल जाए शव के संग-संग…पावन सुरभित चंदन।
कब माया छलिया बन जाए…कब वह भाग्य संभाले,
प्रभु जी…तेरे खेल निराले…॥
यह जग है…कर्मों का फेरा..करनी के संग भरनी,
कब किस्मत दे प्रणय,और..कब..भर दे रंग विरहनी।
कब आँखें गंगा बन जाए…कब नव स्वप्न खंगाले,
प्रभु जी…तेरे खेल निराले…॥
हानि-लाभ का…मोह..त्याग कर..कर्म भूमि में आओ,
हरि चरणों में…लगन लगाओ..मन को मत भरमाओ।
ढाई अक्षर पढ़कर केवल…जीवन सफल बना ले,
प्रभु जी..तेरे खेल निराले…॥

          #अनुपम कुमार सिंह ‘अनुपम आलोक’

परिचय : साहित्य सृजन व पत्रकारिता में बेहद रुचि रखने वाले अनुपम कुमार सिंह यानि ‘अनुपम आलोक’ इस धरती पर १९६१ में आए हैं। जनपद उन्नाव (उ.प्र.)के मो0 चौधराना निवासी श्री सिंह ने रेफ्रीजेशन टेक्नालाजी में डिप्लोमा की शिक्षा ली है।

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