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‘रिश्ते’ भी ‘रिसते’ हैं,
ज्यों पुराने दर्द पुरवैया में टिसते हैं।
और तब…उद्वेलित मन में,
सागर तरंग-सा अनवरत
विगत अनुकूलता के क्षण
विवेचनात्मक चिन्तन के भँवर बीच
उठते और गिरते हैं॥
प्रचलन से हटे हुए नोट-सा,
हारे हुए नेता को किसी वर्ग विशेष
का अधिक प्रतिशत प्राप्त वोट-सा,
रिश्ता…निरर्थक हो जाता है।
ठंडे बस्ते में पड़ी हुई
कुछ सरकारी फाईलों की तरह,
रिश्ता ऩिर्जीववत् बना रहता है।
जीवन और जहान में॥
‘अस्ति’ और ‘नास्ति’ की तरह,
कभी-कभी जवान रिश्ता
जब बूढ़ा हो जाता है।
मानो,कचरे के ढेर का
परित्यक्त कूड़ा हो जाता है।
चमकते हसीन चेहरे,
झुर्रीवाले बदन से रखते दूरी।
मोतियाबिन्द वाले आँख और
दन्तहीन पोपले मुख की ओर दखना
चाहत नहीं…
युवा रिश्ते की होती है
मजबूरी॥
और बूढ़े रिश्ते
आधुनिक रिश्तों को केवल,
निर्विकल्प भाव से टुकुर-टुकुर
निहारते हैं…संज्ञा,विशेषणहीन।
अगति..गति..और..प्रगति की
रफ्तार में इस कदर
रिश्ते भी रिसते हैं,
पैसे ज्यों घिसते हैं।
दोनों का अस्तित्व
संदिग्ध बन जाता है।
जग में..जीवन में..॥
#विजयकान्त द्विवेदी
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।
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