मन मेरा क्यों भटक रहा ?

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deelip sinh
जीवन की संकरी गलियों में,
आज कहाँ यह अटक रहा है…
मन मेरा क्यों भटक रहा हैl 
 
क्यों कर दूँ मैं दोष किसी को,
क्यों खुद को निर्दोष बताऊँ
तीन उँगलियाँ तनी सामने,
उँगली एक किसे दिखलाऊँ
किसका करूँ घमण्ड बता दो,
जीर्ण हुआ तन दुर्बल काया
धन-वैभव मद-मान प्रतिष्ठा,
क्या लेना जब प्यार न पाया
हिल-डुलकर गति कर लेता है,
बना पेण्डुलम लटक रहा हैl 
मन मेरा क्यों भटक रहा है…ll 
 
आसमान में टिम-टिम करते, 
लटक रहे हैं जैसे तारे
वैसे ही हमको लगते हैं,
इस दुनिया के रिश्ते सारे
दिखते साथ सदा राहों में, 
रात अमावस-सी काली है
जीवन का यह निर्जन वन तो,
सूरज बिन खाली-खाली है 
राह अकेले ही चलना है, 
किसके बल पर मटक रहा है।
मन मेरा क्यों भटक रहा है…ll 
 
स्वार्थ नहीं,तो प्रेम नहीं है,
तुलसी का यह वचन सही है
कुछ तो स्वार्थ स्वयं का होगा,
परमारथ की बात कही है
राग-द्वेष छल-दम्भ कुटिलता,
कुछ तो मन में मेरे होगा
खोटी करनी रही हमारी,
करनी का फल सबने भोगा
कुछ तो गलत हुआ है हमसे,
हाथ तभी वो झटक रहा है।
मन मेरा क्यों भटक रहा है…ll 
                                    #दिलीप सिंह ‘डीके’

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