जीवन संघर्ष

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जीवन का संघर्ष कठिन है,
खुद ही खुद से लड़ना पड़ता है
और स्वयं कविता लिखकर के,
स्वयं उसे पढ़ना पड़ता है।
अंतर्द्वंद हमेशा चलता,
सदा हृदय में अगर मगर है
स्वयं चला पथ पर तो जाना,
सरल नहीं है कठिन डगर है॥
बड़े-बड़े गड्ढे हैं पथ पर,
कंटक भी बिखरे हैं मग पर
खंदक खाई और कुआँ हैं,
कितने घाव सहोगे पग पर।
पर्वत खड़ा अकड़कर ऊँचा,
चोटी पर निर्दिष्ट नगर है॥
स्वयं चला पथ…,
सरल नहीं है…॥
हम आश्रित होते हैं जिन पर,
वो भी भार सदृश हैं हम पर
वस्त्राभूषण और अन्न जल,
लेकर ही चलना है रण पर
संबंधों का भार शीश पर,
लेकर चलना शक्ति अगर है।
स्वयं चला पथ…,
सरल नहीं है…॥
चढ़ता रहा शिखर पर डर कर,
गिरि पर गिरकर और संभलकर
पकड़-पकड़कर पैने पत्थर,
वक्ष मेरु से रगड़ रगड़कर
बहुतों को गिरते भी देखा,
पहुंचा जिसमें बहुत जिगर है।
स्वयं चला पथ…।
सरल नहीं है…॥
क्या होती है जीवन रेखा ?
यह चोटी पर चढ़कर देखा,
कुछ घमंड भी कर बैठा तब
नजर झुकाकर नीचे देखा,
पर ऊपर जब नजर उठी तो
देखा ऊँचा और शिखर है,
स्वयं चला पथ…।
सरल नहीं है…॥
और अधिक ऊँचे क्या जाऊँ,
अपनी आँखें नम लाया हूँ
प्राणवायु ऊर्जा भी कम है,
संसाधन भी कम लाया हूँ
लाता अगर साथ मैं सबको,
तब मन कहता अब क्या डर है ?
स्वयं चला पथ…।
सरल नहीं है…॥
कितनी घातक सोंच हमारी,
सदा अकेले रह जाने की
पीछे सबको छोड़ छाण के,
खुद ही सब कुछ पाने की
सब कुछ पहले पाकर के भी,
मिलती न संतुष्टि मगर है
स्वयं चला पथ पर तो जाना,
सरल नहीं है कठिन डगर है।।
                                                         #दिलीप सिंह ‘डीके’

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