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जानकर तेरा पता खुद लापता हूँ आजकल,
स्वप्न आँखों में बहुत,सो जागता हूँ आजकल।
लाख मंजिल पा के भी फिर लौट घर ही आना है,
पीछे रह जाने के डर से भागता हूँ आजकल।
मंदिरों-न मस्जिदों से अर्थ है आवाम का,
बेचना अखबार है,दंगे छापता हूँ आजकल।
मिलन-फागुन-चूड़ी-कंगन पर सभी कहते मगर,
सूनी मांगों पर ग़ज़ल हो,चाहता हूँ आजकल।
नाज़ुकी दिल की मेरे,सब अपनों को मालूम है,
इसलिए अब ‘गैर’ से मैं राबता हूँ आजकल॥
#नीरज त्रिपाठी गैर
परिचय : उ.प्र. के गोण्डा निवासी नीरज त्रिपाठी ‘गैर’ का काव्य जीवन छोटा है,पर इनके गुरु दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’ के मार्गदर्शन में अच्छी लेखनी जारी है। यह सौ से अधिक मुक्तक श्रृंखला, गीत,ग़ज़ल,कविता,मुक्त कविता और कहानियों को रच चुके हैं। कुछ रचनाएं पत्रिकाओं में छपी भी हैं। खास बात यह है कि,वायुसेना में रहकर मातृभूमि की सेवा कर रहे हैं।
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नीरज की इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए साधुवाद । नीरज संभावनाओं से भरे रचनाकार हैं ।
Nyc…
Maja aa gya padh ke bhai…
Bahut shukriya mitra..
Gurudev,,tera tujhko arpan,kya laage mera…pranam